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जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद
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होता है और अशुभ का भी संहार होता है। मंत्र जप के पूर्व मंत्र न्यास की प्रक्रिया भी इसी आधार पर तीन प्रकार की होती है। मंत्रों का बहुमान्य विभाजन उनके लिंग के आधार पर किया गया है । इस दृष्टि से मंत्र तीन प्रकार के होते हैं जिनका विवरण ऊपर दिया गया है।
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लौकिक उद्देश्यों के अनुरूप मंत्रों के नौ प्रकार बताये गये हैं: स्तंभन, संमोहन, उच्चाटन, वशीकरण, जुमण, विद्वेषण, मारण, शान्तिक और पौष्टिक । इनमें से प्रत्येक उद्देश्य के लिये विशिष्ट मंत्र होता है। कुछ मंत्र सभी प्रकार के उद्देश्य के पूरक होते हैं ।
मंत्रों का एक वर्गीकरण उनमें विद्यमान अक्षरों या वर्णों की संख्या के आधार पर किया जाता है। ज्ञानार्णव एवं द्रव्य संग्रह में ३५, १६, ६, ५, ४, २, १ आदि अक्षरों के शास्त्री ने इनके उदाहरण भी दिये हैं । गोविन्द शास्त्री के अनुसार, यदि मंत्रों में तो ३, ४, ५, ९, १२, १४, २२, २७, ३४, ३५, ३८ एवं तेतालीस अक्षर वाले यह भी बताया गया है कि दो हजार से अधिक अक्षर वाले मंत्र स्तोत्र कहलाते हैं। मंत्रों का जप अधिक प्रभावकारी बताया गया है। उन्होंने मंत्रों में पाये जाने वाले ४९ दोष भी बताये हैं। इन दोषों से रहित मंत्र ही जपयोग्य माना गया है।
मंत्रों का निर्देश किया है। वीजाक्षर और पल्लव दोष न हों, साधना के योग्य होते हैं। इस आधार पर अल्पाक्षरी
मंत्र
मंत्रों की संरचना : मंत्रों के अंग
सामान्यतः प्रत्येक मंत्र में तीन अंग होते हैं : अकारादि-क्षकारांत मातृकाक्षर कवर्ग से हकारान्त वीजाक्षर
इसके
और पल्लव या लिंग ( नमः स्वाहा आदि ) । प्रत्येक मंत्र में एकीकृत रूप में समन्वय किया जाता है । शास्त्री के अनुसार सभी जैन मंत्रों का वीज णमोकार मंत्र है। वीजाक्षरों के सूक्ष्मीकरण से ही अन्य मंत्र बनाये गये हैं । वीज कोश और वीज व्याकरण से वीजाक्षरों और मातृका वर्णों का महत्त्व ज्ञात किया जा सकता है । इनसे सम्बन्धित जैन शास्त्रीय विवरण सारणी २ में दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय में वैदिक पद्धति के विवरण अधिक विस्तृत और व्यापक हैं। इन विवरणों में प्रत्येक वर्ण के लिये संकेतक, वर्ण, स्वरूप, आयुध वाहन, परिमाण, तात्विक रूप, देवता, शक्ति, रिषि, छन्द, चन्द्र / सौर कला एवं नाद / प्रणव कला का संसूचन किया जाता है। इन सूचनाओं के आधार पर ही मंत्रों का निर्माण और उनके कार्य एवं सामर्थ्य का अनुमान लगता है । मंत्रों के अंत में लगाये जाने वाले नमः स्वाहा, फट् आदि शब्द उनके लिंग और लक्ष्य के प्रतीक होते हैं । इन्हें ही पल्लव कहते । इन तीन अंगों के बिना मंत्र पूर्ण नहीं माना जाता । उदाहरणार्थ, हम निम्न रक्षा मंत्र को लें :
इनका
ओम् णमो अरिहंताणं हां हृदयं रक्ष रक्ष हुम् फट् स्वाहा। स्वाहा पल्लव हैं, अ, ओ आदि स्वरों से युक्त मातृका रक्षा मंत्र में पंच परमेष्ठियों का पृथक्-पृथक् पाठ किया जाता है।
फट्,
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यह बीस अक्षर का मंत्र है। इसमें ओम्, हुम्, वर्ण हैं और क-ह तक के अनेक बीजाक्षर हैं । पूर्ण तभी यह मंत्र निर्दोष एवं पूर्ण माना जाता है ।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम लघु शान्ति मंत्र का भावात्मक अर्थ ज्ञात करें। इस मंत्र में १९ अक्षर हैं, स्वाहा और ओम् पल्लव हैं। इसमें मातृका वर्ग और वीजाक्षर भो अनेक हैं । सारणी ३ के अनुसार इसमें प्रयुक्त अंगों के फलितार्थ से स्पष्ट है कि इस मंत्र में ऐसे ही वर्णों और पल्लवों का उपयोग किया गया है जो विभिन्न प्रकार की शक्तियों के स्रोत हैं और अशान्ति, तनाव आदि को हैं । स्त्रीलिंगी पल्लव होने से यह मंत्र शान्तिक,
परास्त कर जीवन को शान्तिकर एवं सकारात्मक बनाने में सक्षम पौष्टिक और इच्छापूर्ति का प्रतीक है। इसी प्रकार अन्य मंत्रों के भी
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