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१९८ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
समर्पणभाव, श्रद्धाभाव व भक्तिभाव का विविध रूपों में प्रकटन होता है। सांसारिक अशांन्ति की दशा में यह समर्पणभाव मार्गदर्शी बन जाता है। इस सहज प्रत्यक्ष गुण ने ही स्तोत्र-विधि के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। ऐसा प्रतीत होता है कि मन्त्रों के विकास के पूर्व स्तोत्रों ने अपना स्थान बना लिया था। भक्तिवाद के विविधरूप स्तोत्र-विधि के ही लोकप्रिय रूप हैं। इसीलिये मन्त्रों के उद्धरण से पूर्व ही स्तोत्रों की परम्परा प्राप्त होने लगती है। कहा जाता है कि सर्वप्रथम स्तोत्र, 'उवसग्गहर स्तोत्र' है और उसके प्रणेता आचार्य भद्रबाहु प्रथम (४५६ ई० पू० ) माने जाते हैं। इसके बाद कुछ सदियों तक स्तोवों का विवरण नहीं मिलता। हाँ, दूसरी-तीसरी सदी के समन्तभद्र ( स्वयंभू स्तोत्र ), सिद्धसेन ( कल्याणमन्दिर, छठी सदी ), पूज्यपाद ( दशभक्ति, पांचवीं सदी ), पात्रकेसरी ( पात्रकेसरी स्तोत्र, पांचवीं सदी उत्तरार्ध), मानतुंग ( भक्तामर स्तोत्र, सातवीं सदी ), विद्यानन्द ( श्रीपुर पाश्वनाथ स्तोत्र, ८-९ सदी ), जिनसेन ( जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र, ८-९ सदी), धनंजय ( विषापहार स्तोत्र, ९ सदी ), इन्द्रनंदि ( ज्वाला मालिनी स्तोत्र, दशमशती ), वादिराज (एकीभाव स्तोत्र, ११ सदी ) एवं अन्य आचार्यों द्वारा अनेक बहुप्रचलित स्तोत्रों की परम्परा मिलती है। अधिकांश स्तोत्रों की रचना का कारण विशिष्ट प्रकार की अशुभ दशाओं के परिवर्तन, धर्मप्रभावना तथा आत्मकल्याण से सम्बन्धित है। इस प्रकार स्तोत्र परम्परा पिछले चौबीस सौ वर्षों से निरन्तर प्रबाहमान है। समय-समय पर नये स्तोत्र रचित हए हैं और प्राचीन स्तोत्रों का भाषान्तरण हआ है। सभी स्तोत्रों का विषय इष्टदेव के गुणगान के साथ परमश्रेय एवं वीतरागता के प्रति रुझान की अभिव्यक्ति है। अनेक आचार्यों की स्तोत्र-अभिव्यक्ति से लौकिक प्रभावना कार्य भी सिद्ध हुए हैं।
वस्तुतः शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक परिवेश के परिवर्धन में पूजा, स्तोत्र, मंत्र, ध्यान और हवन का नामोल्लेख किया जाता है। इन सभी का उद्देश्य समग्र जीवन को शुभता की ओर ले जाना है। पूजा में पुज्य के गुणों को प्राप्त करने की कामना रहती है, स्तोत्र में पूज्य के प्रति समर्पण की भावना, मन्त्र और ध्यान में अन्तर्मुखी शक्ति का जागरण एवं हवन में उक्त प्रवृत्तियों के लाभों को स्व-पर-कल्याण हेतु प्रयुक्त करने की कामना व्यक्त होती है । व्यक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार इन पद्धतियों में से एक या अनेक को अपनाकर अपना इहलौकिक जोवन तो प्रशस्त करता ही है, पारलौकिक जीवन की प्रशस्तता का पथ भी अनावृत्त करता है। ये सभी पद्धतियां जीवन की अनेक बिधता, अस्त-व्यस्तता एवं अल्पशक्तिता को एकरूपता, नियमितता, अपरिमित क्षमता एवं सामर्थ्य के रूप में परिणत करती हैं। फिर भी, विभिन्न विधियों की क्षमताओं में कुछ-न-कुछ अन्तर और विशेषता पाई जाती है। यह माना जा सकता है कि उत्तरवर्ती विधि पूर्व-विधि से प्रेरित होती है और ये क्रमशः सरलता से जटिलता की ओर, सहजता से सामर्थ्य की ओर बढ़ती हैं। एक ओर पूजा और स्तोत्र सामान्य जन के लिये उपयोगी हैं, तो मन्त्र और ध्यान विशिष्ट स्तर और क्रिया में समर्थ जनों के लिये उपयोगी हैं। पूजा और स्तोत्र का समर्पण भाव मन्त्र और ध्यान में साधना एवं शक्ति-जागरण के अजस्र स्रोत के रूप में परिणत हो जाता है। संभवतः शब्द शक्ति की सूक्ष्मता के उपयोग के परिज्ञान के साथ स्तोत्रों की तुलना में मन्त्रशक्ति, कष्ट-साध्य होने के बावजूद भी, अधिक आकर्षक हो गई। सारणी १ में मन्त्र और स्तोत्र का तुलनात्मक विवरण दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी भी लक्ष्य की सिद्धि के लिये मन्त्र-जप अधिक समर्थ होता है।
मंत्र साहित्य
यह सुज्ञात है कि मंत्रार्थों की परंपरा अत्यंत प्राचीन है, पर सामान्य और विशिष्ट मंत्रों की परंपरा उससे अर्वाचीन है। उदाहरणार्थ, अर्थतः चाहे जो भी हो, शब्दतः णमोकार मंत्र का सर्वप्रथम उल्लेख १-२ सदी के षट्-खंडागम में ही उपलब्ध माना जाता है। भगवती में भी यह पाया जाता है। इसके पूर्व धरसेनाचार्य ने 'जोणीपाहुड' में मंत्रतन्त्र की शक्ति का वर्णन अवश्य किया है। सदियों बाद णमोकार मंत्र पर तो अनेक ग्रन्थ और उल्लेख पाये जाते है,
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