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२०८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
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है । उसमें विशिष्ट प्रकार की योग्यता एवं आचार-वत्ता होना चाहिये । इसके लिये साधना के पूर्व साधक के लिये अष्ट शुद्धियों का विधान है :
१. द्रव्य शुद्धि : इन्द्रिय एवं मन को वश में कर क्रोधादि विकारों से रहित होना
२. क्षेत्र शुद्धि :
२. समय शुद्धि: ४. आसन शुद्धि:
मन्त्र साधना हेतु निराकुल स्थान, निर्जन स्थान, गृह का शांत कक्ष, श्मशान, शव, श्यामा एवं अरण्य पीठ आदि समुचित स्थान का चयन
प्रातः, सायं एवं मध्याह्न में आवश्यतानुसार निश्चित काष्ठ, शिला, भूमि, चटाई, ताड़पत्र, रेशमी वस्त्र, पद्मासन, खड्गासन, ध्यानासन में मन्त्र जप करना
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समयावधि तक मन्त्र जाप, तिथि शुद्धि कम्बल आदि पर पूर्व या उत्तर दिशा में
५. विनय शुद्धि : मन्त्र के प्रति श्रद्धा, अनुराग एवं संकल्प वृत्ति
६ मनः शुद्धि : विचारों की विकृति हटाकर एकाग्रता का प्रयास
७. वचन शुद्धि : मन्त्र को शुद्धरूप में जपने का प्रयत्न
८. काय शुद्धि : नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर स्नान एवं स्वच्छ वस्त्र पहनकर शुद्ध शरीर से मन्त्र जप । अनेक स्थानों पर त्रिकरण शुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि, भूमि-पात्र शुद्धि आदि के नाम भी पाये जाते हैं । ये अष्टशुद्धियाँ योग मार्ग के समकक्ष हैं । इसलिये यह कहा जाता है कि अच्छा योगी ही अच्छा मन्त्र साधक हो सकता हैं। योगरूप साधन और मन्त्ररूप साध्य । योग्य साधक को बहिरंग और अन्तरंग से शुद्ध, श्रद्धावान् एवं संकल्प- समृद्ध होना चाहिये । साधक की समुचित योग्यताओं के विषय में 'विद्यानुवाद' आदि ग्रन्थों में निरूपण है । कुमारसेन के 'विद्यानुशासन' में भी एतद्विषयक महत्वपूर्ण चर्चा है । पूजा, स्वाध्याय, इन्द्रिय-संयम, गुरु भक्ति, तप और दान करने की प्रवृत्ति से साधना फलवती होती है ।
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यह सामान्य धारणा है कि मन्त्र की साधना मन्त्रज्ञ गुरु के निर्देशन में करना चाहिये । गुरु दो प्रकार के होते हैं: माता-पिता, अग्रज आदि प्राकृत गुरु हैं। आचार्य, मामा, श्वसुर राजा और होता व्यवस्थाकृत गुरु हैं । गुरु विवरणशास्त्रों में उपलब्ध है । वस्तुतः गुरु वही है जो आल्हादकारी हो, अभ्युदय सहायक हो । स्थापनानिक्षेपित एवं मानसिक गुरु भी कल्याणकारी बताये गये हैं। हिन्दू शास्त्रों को अनुसार, गुरु को मनुष्य न मानकर देवतुल्य मानना चाहिये । इनमें साधक के भी निम्न गुण बताये गये हैं: विश्वास, श्रद्धा, गुरुमक्ति, इन्द्रिय संयम, मितभोजन एवं साम्यभाव । जैनाचार्य भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इन गुणों को मानते हैं ।
मंत्र साधना की विधि
देवोत ने बताया है कि वर्तमान में उपलब्ध मन्त्र साहित्य में मंत्र सिद्धि की सम्पूर्ण विधि कहीं भी नहीं दी गई है । इसका संकलन कर मंत्रज्ञों ने अपने अपने पास उसे पूर्ण कर रखा है । फिर भी, जो उपलब्ध है, उसके आधार पर उसकी रूपरेखा प्रस्तुत की जा सकती है। शास्त्रों में मन्त्र-साधना के लिये दस प्रकार के संस्कारों का विधान है। संपूर्ण साधना विधि चतुरंगी, पंचांगी या षडंगी होती है। यह चतुरंगी- - जप, ध्यान, पूजा, हवन तो अवश्य ही होनी चाहिये । तर्पण एवं भोज के बदले में कुछ अधिक जाप किये जा सकते हैं । सर्वप्रथम साधना प्रारम्भ हेतु उपयुक्त मास, तिथि एवं समय का चयन करना चाहिये । तदुपरान्त यथोचित समय पर उपरोक्त आठ शुद्धियों या संस्कारों को सम्पन्न करना चाहिये । उपयुक्त तिथि पर अमृत स्नान कर न्यास, अंगन्यास, कूटाक्ष रन्यास, आत्मरक्षा मन्त्र, परविद्याछेदन मन्त्र, अरिष्टनेमि मन्त्र एवं दिग्बंधनादि के द्वारा जप की पूर्वपीठिका तयार की जाती है । जपों की संख्या एवं मन्त्र भी निश्चित
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