________________ 210 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड 1. साधक में साधना की पात्रता न होना / 2. साधक की समुचित गुरु न मिलना / 3. युग के प्रभाव के अनुसार, आस्थाहीन मन्त्र जप करना। इस आस्थाहीनता का अनुमान कर ही ऋषियों ने कहा होगा कि कलियुग में चौगुनी मात्रा में जप करने से मन्त्रसिद्धि संभव है। संभवतः यह संख्या आस्था को बलवती बनाने के लिये ही स्थिर की गई हो। 4. मंत्र को अशुद्ध उच्चारण पूर्वक जपनाः सदोष मन्त्र जपना 5. अनुष्ठान की पूर्ण प्रक्रिया का संपादन न करना 6. अशुभ मुहूर्त, प्रतिकूल मन्त्र का जाप आदि अन्य कारण / शास्त्रज्ञों का मत है कि उपरोक्त कारणों के न रहने पर एवं दृढ़ इच्छा, संकल्प एवं आस्था रखने पर मन्त्रसिद्धि अवश्य होती है। इससे जीवन उत्साह एवं शक्ति से भरपूर होता है, संसार सुखमय प्रतीत होने लगता है।* पठनीय सामग्री 1. वाल्टर सूबिंग; भक्टरिन आव जनाज, मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1962 2. सुधर्मा स्वामी; समवायांग, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1966 3. साध्वी चंदना (सं०); उत्तराध्ययन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1972 4. शास्त्री, नेमिचंद्र; णमोकार मंत्रः एक अनुचिंतन, मा० ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1967 5. त्रिपाठी, राममूर्ति; जीत अभि० प्रन्थ, जयध्वज प्रकाशन समिति, मद्रास, 1986, पेज 2. 167 6. गोविन्द शास्त्री; मंत्र वर्शन, सर्वार्थसिद्धि प्रकाशन, दिल्ली, 1980 7. साहित्याचार्य, पन्नालाल, मंदिर-वेदी-प्रतिष्ठा कलशारोहण विधि, वर्णी ग्रन्थमाला, काशी, 1971 / 8. जैन विद्या संगोष्ठी; बंबई १९८३-विवरण, भा० ज्ञानपीठ, 1984 9. आचार्य रजनीश; रजनीश ध्यान योग, रजनीशधाम, पूना, 1987 10. लक्ष्मीचंद्र सरोज, कै. चं. शास्त्री अमि. ग्रंथ, रीवा, 1980 पेज 140 * इस लेख के तयार करने में डा० एन० एल० जैन ने मेरी आधारभूत सहायता की है। लेखक उनका कृतज्ञ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org