Book Title: Jain Shastro Ke Samajik Evam Sanskritik Tattvo Ka Manav Vaigyanik Adhyayan Author(s): Gokulchandran Jain Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 6
________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन भारतीय संस्कृति विभिन्न प्रकार की जीवन-पद्धतियों का पुंज है। इसलिए इसे सामासिक संस्कृति (कम्पोजिट कल्चर) कहा जाता है। ___ ५.०३ जीवन पद्धति के लिए हर समूह ने अपनी अलग आचार-संहिता का निर्माण किया है। आचार-संहिता के निर्माण में मूल आधार उस परम्परा का तात्त्विक-चिन्तन (मेटाफिजिक्स) रहा है। देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार उसमें अनेक नियम और उपनियम समाहित किये गये। इस प्रकार जैन परम्परा के चिन्तन ने एक स्वतन्त्र जीवन-पद्धति का निर्माण और विकास किया। इसके अनेक शास्त्र उपलब्ध हैं, जिन्हें 'उपासकाचार' या 'श्रावकाचार' कहा जाता है । ५.०४ आचार-संहिताओं के निर्माण में चरम सत्य की अवधारणा एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। इसी के आधार पर जीवन के लक्ष्य का निर्धारण होता है। भारत में मात्र इसी जीवन को चरम सत्य मानते वाला चिन्तन भी विकसित हुआ तथा इस जीवन के साथ पूर्व और पश्चात् जीवन को स्वीकार करने वाला चिन्तन भी विकसित हुआ । इनको क्रमशः 'अनात्मवादी' और 'आत्मवादी' कहा गया। जैन संस्कृति आत्मवादी है। उसके अनुसार यह जीवन जितना सत्य है, उतनी ही इसके पूर्व और इस जीवन के बाद के जीवन में सत्यता है। इसलिए जीवन का चरम लक्ष्य भूत, वर्तमान तथा भविष्य के जीवन को ध्यान में रख कर तय किया गया है। जैन संस्कृति में जीवन का अन्तिम लक्ष्य 'आत्यन्तिक सुख' माना गया है । ऐसा सुख जो 'अक्षय' है, 'अनन्त' है। यही 'निश्रेयस' है। इसे ही 'निर्वाण' या 'मोक्ष' कहा गया है। ५.०५ जैन संस्कृति में व्यक्ति विशेष या अधिक से अधिक व्यक्तियों के निश्रेयस (ग्रेटेस्ट गुड आव ग्रेटेस्ट नम्बर) की बात नहीं कही गयी, प्रत्युत सभी जीवों (मानव मात्र नहीं) के निश्रेयस (गुड आव आल) की बात कही गयी है। ५.०६ निश्रेयस की उपलब्धि के लिए जैन संस्कृति में किसी मझौलिए (एजेंट) को स्वीकार नहीं किया गया और न यह माना गया कि किसी 'अनिर्वचनीय' 'अदृष्ट' 'सर्वशक्तिमान्' को समर्पित करने से, उसकी कृपा से निश्रेयस की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए उन्होंने सष्टिकर्ता 'ईश्वर' की 'सत्ता' को अस्वीकार किया। उन्होंने कहा कि अपना ईश्वर व्यक्ति स्वयं है । अपना निश्रेयस उसे अपने 'पुरुषार्थ' से स्वयं प्राप्त करना होगा। यह एक ऐसा भेदक तत्त्व है, जो जैन संस्कृति को भारतीय संस्कृति की अन्य धाराओं से पृथक् करता है। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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