Book Title: Jain Shastro Ke Samajik Evam Sanskritik Tattvo Ka Manav Vaigyanik Adhyayan
Author(s): Gokulchandran Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 7
________________ जैन शास्त्रों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों का मानववैज्ञानिक अध्ययन 5.07 जैन शास्त्रकारों ने 'साधन' और 'साध्य' दोनों की शुद्धता पर बल दिया है / निश्रेयस की प्राप्ति के लिए साधन की पवित्रता की बात करते हुए शास्त्रकारों ने अच्छी और बुरी प्रवृत्तियों और अच्छी और बुरी वस्तुओं का वर्गीकरण करने से पूर्व दृष्टि की निर्मलता, ज्ञान की सचाई और प्रवृत्ति की पवित्रता की बात कही है। यही 'धर्म' है। यही निश्रेयस का मार्ग है-'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः विदुः / ' इन्हीं के विवेचन में 'शुभ' और 'अशुभ', 'पाप' और 'पुण्य', 'भाग्य और 'पुरुषार्थ' की अवधारणाओं का निर्माण हुआ। प्रत्येक व्यक्ति के मन, वचन और शरीर की प्रत्येक प्रवृत्ति (एक्टिविटी) शुभ या अशुभ हो सकती है / शुभ प्रवृत्ति पुण्य का और अशुभ पाप का कारण होती है-'शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य / ' पुण्य सुख का और पाप दुःख का कारण बताया गया है। __ पाप के मूल में प्रमाद (निग्लीजेन्स) प्रमुख कारण है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि मनोभाव पाप और पुण्य दोनों के कारण हैं। इनके कारण ही व्यक्ति प्रवृत्ति करता है। 5.08 लोकाचार और शास्त्राचार के सम्बन्ध में जैन शास्त्रकारों ने स्पष्ट कथन किया है। सोमदेव ने लिखा है कि गृहस्थों के दो धर्म हैं--एक लौकिक, दूसरा पारलौकिक / पारलौकिक धर्म के लिए शास्त्र आधार हैं और लौकिक धर्म के लिए लोक / 'लोक-धर्म' के निर्णायक तत्त्व दो हैं—एक तो जिससे आपकी सदृष्टि दूषित न हो, दूसरा जिससे आपके व्रत या नियम विशेष में दोष न लगे। जैन शास्त्रकारों ने लोक-मूढ़ताओं के अन्तर्गत नदी और पर्वतों की पूजा, समुद्र और नदी में स्नान को पवित्रता का कारण, संक्रान्ति में दान, गाय के पृष्ठ भाग को नमस्कार, सूर्य को अर्घ्य देना, आदि का निषेध किया है। जो प्रवृत्ति किसी एक कारण से त्याज्य है, उसे दूसरा बहाना खोज कर अपनाने का भी निषेध है। जैसे-हिंसा त्याज्य है, तो वह अतिथि, पितरों या देवताओं किसी के बहाने से भी नहीं की जानी चाहिए। 5.09 प्राचीन जैन शास्त्रों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों के उपर्युक्त संकेत सामाजिक तथा मानवविज्ञान के अध्ययन-अनुसन्धान के लिए नयी सम्भावनाओं तथा नये क्षेत्रों को उद्घाटित करने में उपयोगी और महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। श्रमणविद्या संकाय सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी, उत्तर प्रदेश परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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