Book Title: Jain Shastro Ke Samajik Evam Sanskritik Tattvo Ka Manav Vaigyanik Adhyayan
Author(s): Gokulchandran Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 1
________________ जैन शास्त्रों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों का मानववैज्ञानिक अध्ययन डॉ. गोकुलचन्द्र जैन जैन शास्त्र १.०१ जैन शास्त्र प्राचीन भारतीय भाषाओं-प्राकृत, संस्कृत, अपांश तथा विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में निबद्ध हैं और आज भी बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। प्राचीन परम्पराओं के आधार पर संकलित या लिखित होने के कारण इन्हें प्राचीन माना जाता है। उपलब्ध सभी शास्त्रों का सीधा सम्बन्ध तीर्थकर वर्धमान महावीर और उनकी परम्परा से है। १.०२ जैन शास्त्रों को उनकी पूर्व परम्परा, लेखन-काल तथा विषय-वस्तु के आधार पर स्पष्ट रूप से परिभाषित और वर्गीकृत किया गया है। इसलिए वहाँ शास्त्रों की परिभाषा और उनकी विषयवस्तु के निर्देश का प्रश्न नहीं है। विज्ञान (नेचुरल साइन्सेज) तथा समाज-विज्ञान (सोशल-साइन्सेज) के आधार पर विषयों का अब जो नया वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण प्राचीन शास्त्रों का सम्भव नहीं है। इन शास्त्रों में प्रविष्ट होकर विभिन्न विषयों की सामग्री को खोजना होगा और उसकी वर्गीकृत विषय सूचियाँ तैयार करनी होंगी। १.०३ शास्त्रों की विश्वसनीयता का प्रश्न, अनुसन्धान की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन अनुसन्धान की, भाषावैज्ञानिक, तुलनात्मक तथा अन्य टेक्निकल पद्धतियाँ, पिछली दो शताब्दियों में विकसित हुई हैं। उनसे शास्त्रों की विश्वसनीयता का परीक्षण करना सम्भव हुआ है। इन कसौटियों पर कसने से अनेक प्राचीन बतायी जाने वाली पोथियों का पर्दाफाश हुआ है और अनेक शास्त्रों की विश्वसनीयता निधि रूप से प्रमाणित हुई है। १.०४ शास्त्रों के लेखन पर देश और काल का प्रभाव निश्चित रूप से देखा जाता है। प्रभाव की मात्रा कमोबेश हो सकती है, पर सर्वथा प्रभावहीन शास्त्र की कल्पना नहीं की जा सकती। शास्त्रों पर देश और काल के प्रभाव को जांचने का स्थूल आधार ऐतिहासिक और तुलनात्मक अपनाया जाता है। यह उपयोगी भी सिद्ध हुआ है। तुलनात्मक से अभिप्राय मात्र शास्त्रों की पारस्परिक तुलना से नहीं है, प्रत्युत समसामधिक पुरातात्विक, अभिलेखोय तथा अन्य साक्ष्यों से तुलना करके तथ्यों को जांचने-परखने से है। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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