Book Title: Jain Shastro Ke Samajik Evam Sanskritik Tattvo Ka Manav Vaigyanik Adhyayan
Author(s): Gokulchandran Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 5
________________ जैन शास्त्रों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों का मानववैज्ञानिक अध्ययन ८९ अनुसार १४ कुलकर हुए, जिन्होंने सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करने के अनेक प्रयत्न किये | इन कुलकरों को 'मनु' भी कहा गया है। जैन शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य प्राचीन भारतीय शास्त्रों में भी मनुओं का विवरण प्राप्त होता है । अन्तिम कुलकर नाभिराय थे । उनकी पत्नी का नाम मरुदेवी था । उन दोनों के जो पुत्र हुआ, उसका नाम 'ऋषभ' या 'वृषभ' रखा गया । जैन परम्परा में ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर', 'आदिदेव' और जैन धर्म का प्रवर्तक माना गया है। पारम्परिक इतिहास का जो विवरण जैन पुराणकारों ने निबद्ध किया है, उसमें कहा गया है कि ग्राम और नगरों की संरचना तथा सामाजिक जीवन का व्यवस्थित रूप ऋषभ से ही आरम्भ हुआ । उन्हीं ने विभिन्न कार्यों के आधार पर समाज का गठन किया तथा सामाजिक जीवन के नियम बनाये । समाजविज्ञान की दृष्टि से 'वृषभ' शब्द भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । 'वृषभ' प्रजनन का प्रतीक है। संतति का स्रोत है । ऋषभ स्वयं 'वृषभ' है । 'शिव' से 'वृषभ' को अलग नहीं किया जा सकता । ४.०५ वर्गविहीन समाज संरचना -- उस समय जिस कार्य को जिस व्यक्ति ने स्वेच्छा से स्वीकार किया, वह उसमें प्रवृत्त हुआ । तब न किसी प्रकार के वर्ग भेद की आवश्यकता हुई और न ही कार्यों के आधार पर किसी ने एक दूसरे को छोटा-बड़ा या ऊँच-नीच माना । इसलिए समाज संरचना की इस अवस्था को 'वर्गविहीन समाज संरचना' कहा जा सकता है । सामाजिक जीवन की यह मूलभूत जैन दृष्टि है, जो किसी न किसी रूप में कई सहस्र वर्ष बीतने के बाद भी जैन समाज में अबतक सुरक्षित और प्रयोग में है । कुलकर व्यवस्था में 'अपराध' और 'दण्ड' की जो स्थिति थी, उसका भी विवरण प्राप्त होता है । भारतीय संस्कृति के नियामक तत्त्व और जैन संस्कृति ५.०१ भारतीय संस्कृति का सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा सामाजिक गठन की अवधारणा है । जैन शास्त्रकारों ने जन्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था को अस्वीकृत किया । उनका कहना है कि मनुष्य जाति एक है । उसमें पशुओं की तरह गौ और अश्व जैसा भेद नहीं किया जा सकता - 'मनुष्यजातिरेकैव । नास्ति भेदो गवाश्ववत् ।' यद्यपि देश और काल ने जैन समाज के गठन को अत्यधिक प्रभावित किया है, तथापि जैन शास्त्रकारों ने आज तक जन्म को 'वर्ग' भेद का नियामक तत्त्व स्वीकार नहीं किया । वर्तमान जैन समाज भी सामाजिक गठन की दृष्टि से इससे मुक्त है । ५.०२ भारतीय संस्कृति का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू जीवन-पद्धति है । यह एक ऐसा निर्णायक तत्त्व है जो भारतीय समाज में 'एकता में अनेकता' का कारण है । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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