Book Title: Jain Shastro Ke Samajik Evam Sanskritik Tattvo Ka Manav Vaigyanik Adhyayan
Author(s): Gokulchandran Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 4
________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन ३.०७ जैन शास्त्रों में सामाजिक और सांस्कृतिक तत्त्व इतनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं कि उनका समाजवैज्ञानिक और मानववैज्ञानिक अध्ययन इन विज्ञानों के लिए नयी आधारभूमि और नये क्षेत्र उद्घाटित करेगा । प्रस्तुत गोष्ठी के लिए जो आधार-सूत्र निर्धारित किये गये हैं, उनके सन्दर्भ में जैन शास्त्रों की दृष्टि को स्पष्ट करने का मैं प्रयत्न करूँगा । मानवविज्ञान का पारम्परिक इतिहास ८८ ४.०१ सभी जैन - शास्त्र इस विषय में एकमत हैं कि मानव के सामाजिक जीवन का क्रमिक विकास हुआ है । विकास और ह्रास का क्रम पहिए की तरह वृत्ताकार घूमता रहता है । इसे 'कालचक्र' कहा गया है । उत्कर्षकाल को 'उत्सर्पिणी' और अपकर्ष काल को 'अवसर्पिणी काल' कहा गया है । ४.०२ इसी क्रम में ‘भोगभूमि', 'यौगलिक जीवन', 'कल्पवृक्ष' और 'कुलकर व्यवस्था' का विवरण प्राप्त होता है । मानवविज्ञान की दृष्टि से इसे जाँचने - देखने पर मानवविज्ञान की भारतीय शब्दावलि तथा उपयोगी सामग्री प्राप्त हो सकती है । ४.०३ जैन शास्त्रों में मानव सभ्यता और सामाजिक जीवन के विकास का जो पारम्परिक इतिहास मिलता है, उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य का जीवन सम्पूर्ण रूप से भोग मय था । इसी कारण उस युग को भोग भूमि कहा गया है । तब न सामाजिक जीवन था और न समाज व्यवस्था के लिए आचार-संहिता । कहा जाता है कि तब 'युगल' पैदा होते थे और 'युगल' ही समाप्त हो जाते थे । युगलों का जीवन वृक्षों पर निर्भर था। उन्हीं से उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती थी । इन वृक्षों को 'कल्पवृक्ष' कहा गया है । बाद के साहित्य में भोगभूमि और कल्पवृक्षों का जितना और जिस प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है, उससे उस युग का, उस 'युग सामाजिक जीवन का ठीक-ठीक चित्र बना पाना सम्भव नहीं है, फिर भी उस वर्णन में से जो सूत्र प्राप्त होते हैं उनसे सामाजिक जीवन के प्रारम्भ की स्थिति का आधार मिलता है । इन सूत्रों का संकलन मानवविज्ञान के अध्ययन के लिए उपयोगी होगा । ४.०४ कुल और कुलकर परम्परा – जब धीरे-धीरे युगल समाप्त होने लगे और मानव सन्तति बढ़ने लगी तब कल्प वृक्षों से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में कठिनाई आरम्भ हो गयी । जनसंख्या वृद्धि के साथ एक ओर कल्प वृक्ष बहुत कम पड़ने लगे, दूसरी ओर सामाजिक जीवन की शुरूआत हुई । मानव सन्तति ने छोटेछोटे समूहों में रहना प्रारम्भ कर दिया जिसे 'कुल' कहा गया है । इस सामाजिक व्यवस्था को शास्त्रकारों ने 'कुलकर व्यवस्था' नाम दिया है। प्राप्त विवरण के परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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