Book Title: Jain_Satyaprakash 1953 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SKSARAN MARWN रणथंभोरके अलाउदिनके मंत्री धनराजका वंशपरिचय O.COM लेखक : श्रीयुत अगरचन्द नाहटा जैन साहित्य समुद्रके समान विशाल है। उसका पार पाना असंभव है । जब कभी भी किसी प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथभंडारका अवलोकन किया जाता है तो उसमें कुछ न कुछ महत्त्वपूर्ण अज्ञात ग्रंथ मिल ही जाते हैं। बहुतसे ग्रंथोंका तो केवल उल्लेख ही मिलता है, ग्रंथको प्रतियें कहीं प्राप्त नहीं होती। कई ग्रंथोंकी प्रतियों अपूर्ण मिलती हैं। किसी किसी प्रतिके तो आदि अंत व मध्यके एक आध प्रत्र ही मिलते हैं। इससे जैन साहित्य कितना विशाल था और कितना अधिक नष्ट हो चुका, उसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। ____ गत अश्विन मासकी बात है, राजस्थानके मुख्य मंत्रीश्री टीकारामजी पालीवालके निमंप्रणसे आबू सम्बन्धी विचार-विमर्शके लिये जयपुर जाना हुआ तो राजस्थान पुरातत्त्वमन्दिर, मुनि जिनविजयजीका व्यक्तिगत संग्रह एवं मुलतान व डेरा-गाजीखांके हस्तलिखित ग्रंथ भंडारोंको देखनेका अवसर मिला। इनमें पचीसों ऐसे अज्ञात ग्रंथ प्राप्त हुए जिनकी अन्य प्रतियों कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं। मुनिजीके संग्रहमें दो अज्ञात ग्रंथ अपूर्ण रूपसे प्राप्त हए: जिनमेंसे 'धनराज-प्रबोधमाला' नामक छोटेसे धर्मोपदेश-सूक्ति संग्रहका परिचय यहाँ दिया जा रहा है। दूसरे कवि सूरचंदविरचित 'पदैकविंशति' नामक ग्रन्थका परिचय फिर कभी दिया जायगा। धनराज प्रबोधमाला के ४ पत्र ही मिले हैं। जिनमें से प्रथम पत्रका एक किनारा सड कर टूट गया है, इससे कुछ पद्यांश नष्ट हो गया है। चौथे पत्रमें ग्रन्थकी रचना-प्रशस्ति अपूर्ण रह गई है जो पांचवें पत्रमें समाप्त हो जाना चाहिए पर उस पत्रके प्राप्त नहीं होनेसे प्रन्थके रचनाकाल आदिका निश्चित पता नहीं चल सका। प्रति १६ वीं शताब्दीकी लिखित है । अक्षर बडे एवं सुवाच्य हैं। प्रति पृष्ठ पंक्ति १३ और प्रति पंक्तिमें ५०-५२ लगभग अक्षर हैं। मूल ग्रन्थ ७५ श्लोकोंका है, जो ११ प्रक्रमोंमें विभक्त है । प्रक्रमोंके नाम एवं श्लोकोंकी संख्या इस प्रकार है:-(१) xxxx रंगोत्पत्ति, श्लोक १२, (२) सुगुरूपदेश,. श्लोक ६, (३) सुपात्रदान, श्लोक ५, (४) शीलमाहात्म्य श्लोक ६, (५) तपोमाहात्म्य, लोक ७, (६) भावमाहात्म्य श्लोक ४, (७) परोपकार, श्लोक ५, (८) बूतादि सप्तव्यसन, For Private And Personal Use Only

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