Book Title: Jain_Satyaprakash 1944 09 Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूज्यताका विचार लेखक:-पूज्य मुनिमहाराजश्री विक्रमविजयजी [पू. आ. म० श्रीविजयलब्धिसूरीश्वरशिष्य [ क्रमांक १०५ से क्रमशः ] जीवके चले जाने पर इत्यादि सरिजीका लेख बराबर है, क्योंकि जीक्के चले जाने पर इसके साथ जीवका संबंध नहीं हैं, अगर हो तो उसे शब ही नहीं कह सकते, तो उसका सन्मान मुरदा का ही मान कहा जायगा। पूज्यकी आत्माने इस देहमें निवास किया था इस लिये वह मुरदाका मान नहीं है किन्तु आत्माका. ही है. ऐसा कहो तो मुरदाको जलाना · नहीं चाहिए । इदानीं आत्मसंबंध नहीं है, भूतकालमें था । ऐसा माने तो द्रव्यावर हुवा। एवं च जैसे साक्षात् आत्मसंबंध न होने पर भी भूतसंबंध मान कर शव आदरणीय होता है उसी प्रकार भावी भावतीर्थकरत्व पर्यायवाले आत्माका साक्षात् संबंध जिस शरीरके साथ विद्यमान है वह तो शवकी अपेक्षया पूज्यतम है अतः जैसे धर्मगुरुके शव की अन्त्येष्टि क्रिया, उनमें धर्मगुरुको आत्माका संबंध समज कर, धूमधामसे करना प्रामाणिक है उसी तरहसे भावि परम आत्मा के संबंधसे पूर्वावस्था भी, अवश्य पूजनीय है। जम्बूद्वीपप्राप्तिका निवाणअधिकार विवेचित है जिससे उपर्युक्त ही सिद्ध होता है। - इसीसे 'सरिजीकी इस बात पर यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। ऐसा कहकर जिस प्रश्न की उपस्थिति की वह भी नहीं उठ सकता। इस प्रश्नकर्ताका तो यही सिद्धान्त है कि जो भावांभिन्न वो ही ग्राह्य, अन्य नहीं। नाम भावाभिव है शब भावाभिन्न है इससे ग्राह्य है, मूर्ति भावाभिन्न नहीं इस लिए त्याज्य है, इसका उत्तर पूर्व लेखोंसे हो चुका है इससे भी यह प्रश्न हल हो जाता है। और 'शरीरमें तो बहुत काल तक आत्मा निवास कर चुका, किन्तु मूर्तिमें तो सर्वज्ञ आत्माने एक समयके लिए भी स्थिति नहीं की' यह भी बराबर नहीं । तीर्थकरकी सद्भाव दशामें जो नाम उच्चरित होता था उसमें कथंचित् भाषा: भिन्नत्व होनेसे ग्राह्य होने पर भी आजके उच्चरित माममें भावाभिन्नत्व नहीं होने. पर भी जैसे तुम लोग अभिन्न समजकर स्मरण करते हो वह तो खोटा ही होगा, क्योंकि उसमें सर्वक्ष आत्माका संबंध ही नहीं। और बहुत लम्बे समय तक जिस शरीरमें आत्मा निवास कर चुका उस शरीरमें कुछ काल उस आत्माका निवास न होने पर भी किसी भी बुद्भिसे वह शरीर आदरणीय हो तो सर्वशताके पूर्व कालीन शरीर भी आदरणीय क्यों नहीं, जिसको तुमने पूर्व में निराकरण करनेकी चेष्टा की उसीको तुमने यहां पर स्वीकार लिया xxx xx ___"चैत्वं सुप्रशस्तमनोहेत्वात्" इस विषयमें रायपसेणीमें स्वयं भगवानके लिए कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेयं, यह विशेषण लगाये गये हैं इतना मात्र कहकर कहनेका साहस ही किया है, मगर सिद्धि या खंडन नहीं किया। कौन कहता है भगवानका चैत्य विशेषण नहीं है ? इससे चैत्य शब्द जिनप्रतिमावाची नहीं है, और ज्ञानवान्का पाची है यह सिद्ध नहीं हो सकता । यद्यपि इत्यादि जो लेख है यह बिलकुल प्रमाणहीन है। अन्य स्थानमें किये हुए अर्थ विपरीत हैं यहां पर किया हुआ अर्थ सञ्चा है, इसमें कोई विशेष हेतु दिखलाया For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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