Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म ] ઠવણાસચ્ચે [२५] समझे ही नहीं। 'कथंचित् क्यों ? सर्वथा कहने में क्या शर्म आती हैं ?' यह प्रश्न भी उपेक्षणीय ही है, क्योंकि कोई भी जैन सर्वथा भेद या सर्वथा अभेदका व्यवहार करता ही नहीं, करे तो वह जैन नहीं, मिथ्यात्वी है। और 'कथंचित् भिन्नका मतलब तो थोडीसी भिन्नता बहुतसी एकता है ' ऐसा लिखते हो यह भी केवल लिखना मात्र ही है। कथंचित् अभिन्नका यह मतलब कहांसे पाया ? मनमानी करना हो तो, कथंचित् भिन्नका मतलब बहुतसी भिन्नता थोडोसी एकता क्यों न हो ? एवं च यह मतलब ही गलन होनेसे 'पत्थर आदिकी मूर्ति में भावस्वरूपकी अधिक एकता किस तरह हैं ?' इस प्रश्नका उत्तर देना भी अनावश्यक ही है: ययोंकि कथंचित् भिन्नताका यह अर्थ है ही नहीं । 'मैं जानना चाहता हूं कि पत्थर आदिकी मूर्तिसे प्रभुकी एकता किस तरह हो सकती है । इसका उत्तर यही हैं कि जिस तरह जड नामसे हो सकती हैं । और · सूरिजीके न्यायसे भी वह सिद्ध होता है ' इत्यादि जो लिखा है वह भी उन लेखोंका विपरीत अर्थ समझके ही लिखा है । कुंभारका जो महावोररूप नाम पर्याय है, बह भगवानका पर्याय नहीं है, और मूत्तिं तो भगवानका पर्याय है। जब भगवानका पर्यायभूत नाम वंद्य है, तब उन्हींकी पर्यायभूत मूर्ति (स्थापना) भी वंद्य ही है, यह स्वयंसिद्ध है। और 'कुम्हारका पुत्र महावीरत्वसे रहित होनेसे वंदनीय नहों तो गुणरहित मूर्ति पूजनीय क्यों ?। यह प्रश्न भी असंगत है, क्योंकि कुम्हारके अवंदनीयत्वमें महावीरत्वराहित्य प्रयोजक है । ऐसे मूर्तिमें गुणरहितत्व अभीतक सिद्ध नहीं है। 'नामस्मरण भावस्वरूपका होता है। यह भी असंभवित हैं। नाम और भावका कोई संबंध नहीं हो सकता है । नाम मूर्त है, और भाव अमूर्त है, तो भी संबंध है तो मूति और भावका संबंध क्यों नहीं ? जिससे 'मूर्तिपूजफ करते हैं भावसे भिन्न स्थापनाको पूजा' ऐसा कहते हो । ' नामस्मरण व मूर्तिपूजामें इतना बड़ा अंतर है, स्मरण करनेवाला मूल वस्तुको ही यादकर नाम लेता हैं, किन्तु मूर्तिपूजक तो मूल वस्तुसे भिन्न दूसरो चीजकी पूजा करते हैं अत एव नामस्मरण करनेसे मुर्तिपूजाकी समानता नहीं हो सकती,' यह भी केवल पाक्षिक आग्रहमात्र है । नामस्मरण और मूर्तिपूजामें किसी प्रकारका अंतरं हैं ही नहीं, जैसे भावसे मूर्ति भिन्न है, ऐसे नाम भी भिन्न है। जिस प्रकार मूल वस्तुको यादकर उससे भिन्न नामको स्मरते हैं, इसी प्रकार मूल वस्तुको ही यादकर मूर्तिकी भी पूजा की जाती है, तो अंतर कहां रहा ? 'कल्पित आकृतिके सिवा मूर्तिमें जैसा कोई संबंध नही है' कहते हो उसी प्रकार कल्पित पाचकत्व संबंधके सिवा दूसरा कोई संबंध नामके साथ है ही नहीं, इस लिये तुमको नामस्मरण भी नहीं करना चाहीए। अतएव नाम और मूर्ति में समानता होनेसे ही मूर्तिको नहीं माने तो नामका भी स्मरण त्यजनीय ही है। प्रमाण समान होने पर भी एक देशमें ही आग्रह करना कदाग्रह ही है, प्रामाणिकता नहीं. । ___ विधवा स्त्रीका पतिनामस्मरणका दृष्टान्त भगवत्नामस्मरणके साथ बिलकुल संगत है। प्रभुके नामका स्मरण करनेवाला भो प्रभुको परोक्ष समझकरके ही करता है, और स्त्री भी For Private And Personal Use Only

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