Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 06
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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[२७८ ]
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
વાવ
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इशारेका भी जवाब इसीमें आ जाता है, क्योंकी हमने शास्त्रको वाणीको मूर्ति रूप और उसके सन्मानको मूर्तिपूजा रूप मानना चाहिए यह साबित किया है, और जब वाणीकी मूर्ति रूप अक्षर जड होने पर भी उसकी पूजा मानी जावे तब भगवान की मूर्ति मानने में क्या विरोध रहा? यह भाव समझकर लिखना चाहिए।
आगे चलकर डोसीजी लिखते हैं कि 'सूरिजीको मूर्तिके बिना सारा शासन ही शून्य दिखाई देता है', बात तो बराबर है, क्योंकि जहां जहां सम्यग्दर्शन वहां वहां प्रभुमूर्ति की मान्यता है, जहां प्रभुमूर्तिकी मान्यता नहीं है वहां समकित भी नहीं और समकित के बिनाकी करणी 'मूलं नास्ति कुतः शाखा' जैसी है यही बात सूरीश्वरजी महाराजने 'प्रभुपूजाको नहीं माननेवाले' इत्यादिसे बताई है, इस लिये 'मूर्तिमाताकी ममतावाले' इत्यादि लेखसे मात्र प्रपंच ही खेला गया है।
“ मूर्ति बिना किया हुआ ध्यान बुगला ध्यान होनेसे सर्वथा अनिष्ट और दुर्गति देनेवाला है"। ऐसा जो डोसीजीने सूरिजोके नामसे अवतरण दिया है वह झूठ है। सूरिजीने तो ऐसा लिखा है कि इससे बरखिलाफ होकर ध्यान करनेवालोंका ध्यान बुगलाध्यान......है'। गणधर, पूर्वधर आदि महान आत्माएं मूर्तिको मानती थीं वह तो पक्षपात छोडकर सर्वाग आगोको मानलो तो बखूबी मालूम हो जाय और वे ही गणधर पूर्वधर आदि महापुरुष आगमों में मूर्तिपूजाको कह रहे हैं तब वे मूर्तिकी मान्यता नहीं रखते, अवसर पर उनका ध्यानादि नहीं करते थे यह किस तरहसे कह सकते हो ? ऐतिहासिक वर्णनोमें एक भी वर्णन नहीं मिलता जिसमें वे मूर्तिकी मान्यता न धराते हो, अतः सरिजी जो कहते हैं वह सर्वथा सत्य ही है। जब सरिजीने साक्षात् प्रभुकी मौजूदगीमें भी उनकी मूर्ति की आवश्यकता बतलाई हो तब तो गणधरादिके ऐसा नहीं करनेसे आपने दिये हुए आरोप लग सकते थे। 'हम मूर्तिमें मूर्तिमानकी पूजा करते हैं। यह अवतरण भी डोसीजीने खोटा ही लिखा है, क्योंकि 'हमारा मूर्तिमें मूर्तिमानका पूजन होनेसे सारा हि अवलंबनका विषय और मूर्तिपूजन भिन्न नहीं सिद्ध होता है' ऐसा सूरिजीका लेख है और मूर्ति में मूर्तिमानकी पूजा करे भी तो झूठ कैसे ? और मूर्तिकी ही पूजा की जाती है, इससे मूर्तिमानकी पूजा नहीं हुई यह विषय कैसे साबित हो सकता है ? क्या मूर्तिमानको नहीं देखने मात्रसे ? या और किसी प्रमाणसे ? किस तरहसे आपने इसे झूठ कहा ? मूर्तिमानको तो आपने भी देखे नहीं, तो 'मूर्तिमानकी पूजा नहीं' यह किस तरहसे प्रत्यक्ष है ऐसा कहोगे? आपकी प्राथमिक जिज्ञासा असंगत ही है, क्योंकि ग्रामस्थ मूर्तिमें मूर्तिमानकी पूजा नही होती, यह केवल आपकी कपोल कल्पना ही है। दूसरी जिज्ञासाका उत्तर यही है कि मूर्तिमानकी पूजा अनेकों प्रकारसे हैं क्योंकि समवसरणमें प्रभुकी पूजा भव्य जीव दूसरे प्रकारसे करते थे, और अन्य कालमें अन्य प्रकारसे,
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