Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 06
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२८०] છ જૈન સત્ય ૪ हैं, चुग या चउग अभीतक देखनेमें नहीं आए, शायद कहीं अन्यत्र मिलते हों। ___ ३. संस्कृत मुत्कलाप्य ____ पहलेपहल जैनसाहित्य प्राकृतमें रचा गया। कुछ कालके बाद जैनाचार्य संस्कृतमें भी ग्रन्थ रचने लगे। संस्कृतका सबसे प्राचीन जैन ग्रन्थ जो अब मिलता है, उमास्वातिकृत तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। चूंकि जैनसाहित्यकी प्रधान भाषा प्राकृत थी और जैन लेखक प्राकृतके विद्वान होते थे, इस लिये उनकी संस्कृत रचनामें, विशेषकर लोकप्रिय कथा कथानकोंमें प्राकृतके अनेक शब्द संस्कृत जैसे बनाकर प्रयुक्त किये गये हैं। अजैन पण्डित इन शब्दोंसे अपरिचित होते थे। जिन जैन ग्रन्थोंका अजैनोंने संपादन किया, उन्होंने ऐसे शब्दोंको अशुद्ध समझकर शुद्ध करनेकी निष्फल चेष्टा की है । 'मुत्कलाप्य' इसका उदाहरण है। मुत्कलाप्य शब्द पञ्चतन्त्र, वेतालपञ्चविंशति, कथाकोष आदि ग्रन्थों प्रचुरतासे मिलता है। इसके पूर्व प्रायः द्वितीया विभक्त्यन्त गुरुं, पितरं, मातर आदि शब्द होते हैं। इसका अर्थ है गुरु आदिकी आज्ञा लेकर प्रस्थान करना । अजैन संपादकोंके हाथमें इस शब्दने कई रूप धारण किये। किसीने उसे उत्कलाप्य बनाया, किसीने उत्कलाय्य। पूर्ववर्ती शब्दके अनुस्वारको निरर्थक समझकर मुत्कलाप्यको म् + उत्कलाप्य मान लिया। लाहौरसे सन् १९४२में प्रकाशित कथाकोषके संपादकने पृष्ठ ६ पर मुत्कलाय्य पाठ रक्खा है । व्युत्पत्ति करते समय किसीने इसे उद् पूर्वक कल धातुका णिजन्तरूप माना, किसीने उत्कलापसे निकाला अर्थात् कलाप (पक्षों) को फैलाते हुए मोरकी तरह प्रसन्न हो कर । चित्रसेनपद्मावतीचरित्र (लाहौर, १९४२) श्लोक ३१५ में मुत्कलापयति रूप मिलता है। वास्तवमें यह शब्द प्राकृत मुक्कलसे बना है जिसका अर्थ है 'छूटा हुआ' । मुक्कल-संस्कृत मुक्त+ल प्रत्यय। फिर मुक्कलसे नाम धातु बना मुक्कलावेइ 'छुट्टी लेना, छुट्टी पाना'। इससे फिर संस्कृतमें मुत्कलापयति रूप बनाया गया। यह शब्द अब तक देशी भाषाओंमें मिलता है। जैसे—गुजराती 'मोकलबुं'; हिन्दी पञ्जाबी 'मुकलावा' अर्थात् विवाहके पश्चात् वधूका बरके धरमें लाया जाना । ‘मोकला' मुक्त । विस्तृत विवेचनके लिये देखिये-'न्यू इन्डियन एन्टिक्वरी,' प्रथम खण्ड, पृ० ३४२-३। For Private And Personal Use Only

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