Book Title: Jain Sadhna ki Vishishtata
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 4
________________ · २७६ • भी अर्थ और काम से धर्म को ठेस पहुँचती हो, वहाँ वह इच्छा का संवरण कर लेता है । मासिक छः दिन पौषध और प्रतिदिन सामायिक की साधना से गृहस्थ भी अपना आत्म बल बढ़ाने का प्रयत्न करे और प्रतिक्रमण द्वारा प्रातः सायं अपनी दिनचर्या का सूक्ष्म रूप से अवलोकन कर अहिंसा आदि व्रतों में लगे हुए, • दोषों की शुद्धि करता हुआ आगे बढ़ने की कोशिश करे, यह गृहस्थ जीवन की साधना है । व्यक्तित्व एवं कृतित्व अन्य दर्शनों में गृहस्थ का देश साधना का ऐसा विधान नहीं मिलता, उसके नीति धर्म का अवश्य उल्लेख है, पर गृहस्थ भी स्थूल रूप से हिंसा, असत्य, प्रदत्त ग्रहण, कुशील और परिग्रह की मर्यादा करें, ऐसा वर्णन नहीं मिलता । वहाँ कृषि - पशुपालन को वैश्यधर्म, हिंसक प्राणियों को मार कर जनता को निर्भय करना क्षत्रिय धर्म, कन्यादान आदि रूप से संसार की प्रवृत्तियों को भी धर्म कहा है, जबकि जैन धर्म ने अनिवार्य स्थिति में की जाने वाली हिंसा और कन्यादान एवं विवाह आदि को धर्म नहीं माना है । वीतराग ने कहा – मानव ! धन- दारा - परिवार और राज्य पाकर भी अनावश्यक हिंसा, असत्य और संग्रह से बचने की चेष्टा करना, विवाहित होकर स्वपत्नी या पति के साथ सन्तोष या मर्यादा रखोगे, जितना कुशील भाव घटाओगे, वही धर्म है । अर्थ-संग्रह करते नीति से बचोगे और लालसा पर नियन्त्रण रखोगे, वह धर्म है । युद्ध में भी हिंसा भाव से नहीं, किन्तु ग्रात्म रक्षा या न्याय की दृष्टि से यथाशक्य युद्ध टालने की कोशिश करना और विवश स्थिति में होने वाली हिंसा को भी हिंसा मानते. हुए रसानुभूति नहीं करना अर्थात् मार कर भी हर्ष एवं गर्वानुभूति नहीं करना, यह धर्म है । घर के प्रारम्भ में परिवार पालन, अतिथि तर्पण या समाज रक्षण कार्य में भी दिखावे की दृष्टि नहीं रखते हुए अनावश्यक हिंसा से बचना धर्म है । गृहस्थ का दण्ड - विधान कुशल प्रजापति की तरह है, जो भीतर में हाथ रख कर बाहर चोट मारता है । गृहस्थ संसार के आरम्भ - परिग्रह में दर्शक की तरह रहता है, भोक्ता रूप में नहीं । 'असंतुष्टा द्दिजानष्टाः, सन्तुष्टाश्च मही भुज:' की उक्ति से अन्यत्र राजा का सन्तुष्ट रहना दूषरण बतलाया गया है, बहाँ जैन दर्शन ने राजा को भी अपने राज्य में सन्तुष्ट रहना कहा है । गणतन्त्र के अध्यक्ष चेटक महाराज और उदयन जैसे राजाओं ने भी इच्छा परिमारण कर संसार में शान्ति कायम रखने की स्थिति में अनुकरणीय चरण बढ़ाये थे । देश संयम द्वारा जीवन सुधार करते हुए मरण-सुधार द्वारा आत्म-शक्ति प्राप्त करना गृहस्थ का भी चरम एवं परम लक्ष्य होता है । Jain Educationa International सर्वविरति साधना - सम्पूर्ण प्रारम्भ और कनकादि परिग्रह के त्यागी मुनि की साधना पूर्ण साधना है । जैन मुनि एवं आर्या को मन, वाणी एवं काय For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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