Book Title: Jain Sadhna ki Vishishtata
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 6
________________ * 278 * व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रशान्त मन नहीं था / सामान्य रूप से साधना की प्रगति के लिए स्वस्थ-समर्थतन, शान्त एकान्त स्थान, विघ्न रहित अनुकूल समय, सबल और निर्मल मन तथा शिथिल मन को प्रेरित करने वाले गुणाधिक योग्य साथी की नितान्त आवश्यकता रहती है। जैसा कि कहा है "तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध सेवा, विवज्जणा बाल जणस्स दूरा / सज्झाय एगंत निसेवणाय, सुत्तत्थ संचितण या धिईय / / " इसमें गुरु और वृद्ध पुरुषों की सेवा तथा एकान्त सेवन को बाह्य साधन और स्वाध्याय, सूत्रार्थ चिन्तन एवं धर्म को अन्तर साधन कहा है। अधीर मन वाला साधक सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता / जैन साधना के साधक को सच्चे सैनिक की तरह विजय-साधना में शंका, कांक्ष रहित, धीर-वीर, जीवन-मरण में निस्पृह और दृढ़ संकल्प बली होना चाहिये / जैसे वीर सैनिक, प्रिय पुत्र, कलत्र का स्नेह भूलकर जीवन-निरपेक्ष समर भूमि में कूद पड़ता है, पीछे क्या होगा, इसकी उसे चिन्ता नहीं होती। वह आगे कूच का ही ध्यान रखता है। वह दृढ़ लक्ष्य और अचल मन से यह सोचकर बढ़ता है कि-"जितो वा लभ्यसे राज्यं, मृतः स्वर्ग स्वप्स्यसे / उसकी एक ही धुन होती है "सूरा चढ़ संग्राम में, फिर पाछो मत जोय / उतर जा चौगान में, कर्ता करे सो होय / / " वैसे साधना का सेनानी साधक भी परिषह और उपसर्ग का भय किये बिना निराकुल भाव से वीर गजसुकुमाल की तरह भय और लालच को छोड़ एक भाव से जूझ पड़ता है। जो शंकालु होता है, उसे सिद्धि नहीं मिलाती। विघ्नों की परवाह किये बिना 'कार्य व साधवेयं देहं वापात येयम्' के अटल विश्वास से साहसपूर्वक आगे बढ़ते जाना ही जैन साधक का व्रत है। वह 'कंखे गुणे जाव सरीर भेो' वचन के अनुसार आजीवन गुणों का संग्रह एवं आराधन करते जाता है। साधना के विघ्न-साधन की तरह कुछ साधक के बाधक विघ्न या शत्रु भी होते हैं, जो साधक के आन्तरिक बल को क्षीण कर उसे मेरु के शिखर से नीचे गिरा देते हैं। वे शत्रु कोई देव, दानव नहीं, पर भीतर के ही मानसिक विकार हैं / विश्वामित्र को इन्द्र की दैवी शक्ति ने नहीं गिराया, गिराया उसके भीतर के राग ने / संभूति मुनि ने तपस्या से लब्धि प्राप्त कर ली, उसका तप बड़ा कठोर था। नमुचि मन्त्री उन्हें निर्वासित करना चाहता, पर नहीं कर सका। सम्राट् सनत्कुमार को अन्त:पुर सहित आकर इसके लिये क्षमा याचना करनी पड़ी, परन्तु रानी के कोमल स्पर्श और चक्रवर्ती के ऐश्वर्य में जब राग किया, तब वे भी पराजित हो गये। अतः साधक को काम, क्रोध, लोभ, भय और अहंकार से सतत जागरूक रहना चाहिये / ये हमारे भयंकर शत्रु हैं। भक्तों का सम्मान और अभिवादन रमणीय-हितकर भी हलाहल विष का काम करेगा / / Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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