Book Title: Jain Sadhna ki Vishishtata
Author(s): Hastimal Acharya
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf

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Page 5
________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • २७७ से सम्पूर्ण हिंसा, असत्य, अदत्त ग्रहण, कुशील और परिग्रह आदि पापों का त्याग होता है। स्वयं किसी प्रकार के पाप का सेवन करना नहीं, अन्य से नहीं करवाना और हिंसादि पाप करने वाले का अनुमोदन भी करना नहीं, यह मुनि जीवन की पूर्ण साधना है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जैसे सूक्ष्म जीवों की भी जिसमें हिंसा हो, वैसे कार्य वह त्रिकरण त्रियोग से नहीं करता । गृहस्थ अपने लिए आग जला कर तप रहे हैं, यह कह कर वह कड़ी सर्दी में भी वहाँ तपने को नहीं बैठता। गृहस्थ के लिए सहज चलने वाली गाड़ी का भी वह उपयोग नहीं करता और जहाँ रात भर दीपक या अग्नि जलती हो, वहाँ नहीं ठहरता । उसकी अहिंसा पूर्ण कोटि की साधना है । वह सर्वथा पाप कर्म का त्यागी होता है। फिर भी जब तक रागदशा है, साधना की ज्योति टिमटिमाते दीपक की तरह अस्थिर होती है। जरा से झोंके में उसके गुल होने का खतरा है। हवादार मैदान के दीपक की तरह उसे विषय-कषाय एवं प्रमाद के तेज झटके का भय रहता है। एतदर्थ सुरक्षा हेतु आहार-विहार-संसर्ग और संयमपूर्ण दिनचर्या की कांच भित्ति में साधना के दीपक को मर्यादित रखा जाता है। साधक को अपनी मर्यादा में सतत जागरूक तथा आत्म निरीक्षक होकर चलने की आवश्यकता है । वह परिमित एवं निर्दोष आहार ग्रहण करे और अपने से हीन गुणी की संगति नहीं करे । साध्वी का पुरुष मण्डल से और साधु का स्त्री जनों से एकान्त तथा अमर्यादित संग न हो, क्योंकि अतिपरिचय साधना में विक्षेप का कारण होता है । सर्व विरति साधकों के लिए शास्त्र में कहा है "मिहि संथवं न कुन्जा, कुज्जा साहुहि संथवं ।” साधनाशील पुरुष संसारी जनों का अधिक संग-परिचय न करे, वह साधक जनों का ही संग करे । इससे साधक को साधना में बल मिलेगा और संसार के काम, क्रोध, मोह के वातावरण से वह बचा रह सकेगा । साधना में आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि साधक महिमा, व्यक्ति पूजा और अहंकार से दूर रहे। साधना के सहायक-जैनाचार्यों ने साधना के दो कारण माने हैंअन्तरंग और बहिरंग । देव, गुरु, सत्संग, शास्त्र और स्वरूप शरीर एवं शान्त, एकान्त स्थान आदि को बहिरंग साधन माना है, जिसको निमित्त कहते हैं। बहिरंग साधन बदलते रहते हैं। प्रशान्त मन और ज्ञानावरण का क्षयोपशम अन्तर साधन है । इसे अनिवार्य माना गया है। शुभ वातावरण में आन्तरिक साधन अनायस जागत होता और क्रियाशील रहता है, पर बिना मन की अनुकूलता के वे कार्यकारी नहीं होते। भगवान् महावीर का उपदेश पाकर भी कूणिक अपनी बढ़ी हुई लालसा को शान्त नहीं कर सका, कारण अन्तर साधन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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