Book Title: Jain Sadhna Paddhati Author(s): M P Patairiya Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 3
________________ जैन-साधना-पद्धति : एक विश्लेषण | ३४१ ०००००००००००० ०००००००००००० ORMA S.....2 सहका साधना में सहयोगी शरीर का संयम-शरीर का योगसाधना में एक विशिष्ट स्थान है। इसका संयम, इसकी उपेक्षा, साधना में अत्यन्त सहयोगी सिद्ध होते हैं किन्तु शरीर की सुरक्षा और सज्जा आदि अत्यन्त बाधक होते हैं । फलतः इस बाधा को सदा के लिए साधनापथ से दूर रखने के निमित्त से "कायक्लेश" नामक पंचम योगांग की व्यवस्था जैन साधना पद्धति में निर्धारित की गई है। इसके चार प्रमुख१५ भेद हैं-१. आसन २. आतापना ३. विभूषा तथा ४. परिकर्म वजना। साधना में आसन का स्थान-चित्त की एकाग्रता तथा धैर्य की प्राप्ति के लिए साधना पद्धति में आसनों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। जैनाचार्यों ने आसनों के तमाम भेदों को मूलतः दो भेदों में विभाजित किया है-१. शरीरासन २. ध्यानासन । इनमें से प्रथम प्रकार के आसन चित्त की एकाग्रता के निमित्त होते हैं तथा द्वितीय प्रकार के आसन धैर्यप्राप्ति के साधन होते हैं। जैन आगमों में प्रमुखतः सात प्रकार के आसनों का विश्लेषण उपलब्ध होता है (१) स्थानस्थिति-दोनों भुजाओं को फैलाकर तथा पैर की दोनों एड़ियों को परस्पर मिलाकर, अथवा एक बालिस्त जितना अन्तर रखकर, सीधे खड़ा होना। (२) स्थान-स्थिर रूप में शान्त होकर बैठना । (३) उकड़-पैर और नितम्ब दोनों भूमि से लगाकर१७ बैठना। (४) पद्मासन-बायीं जांघ पर दायां, दायीं जांघ पर बायां पैर रखकर हथेलियों को नाभि के नीचे एक दूसरे के ऊपर सीधा रखकर बैठना। (५) वीरासन-इसके कई प्रकारों का उल्लेख जैन आगमों में मिलता है। जैसे-बायां पैर दायीं सांथल पर, दायां पैर बायीं सांथल पर रखकर दोनों हाथों को नाभि के नीचे रखना । अथवा सिंहासन पर बैठकर पैरों को नीचे भूमि पर टिकाकर रखना । अथवा एक पैर से दोनों अण्डकोषों को दबाकर दूसरे पैर को दूसरी जांघ पर रखकर सरल भाव से बैठना । (६) गोदेहिका-गोदोहन के समय जैसी स्थिति में बैठना । (७) पर्यङ्कासन-दोनों जांघों के अधोभाग को पैरों पर टिकाकर, दोनों हाथों को नाभि के सामने दक्षिणोत्तर रखकर बैठना । जैन परम्परा में वीरासन आदि कठोर आसनों तथा पद्मासन प्रभृति आसनों को सुखोवह माना गया है तथा इन दोनों को ध्यान के निमित्त उपयोगी स्वीकारा गया है। इनमें से पद्मासन आदि को चित्त की एकाग्रता के लिए तथा वीरासन आदि को धैर्य की प्राप्ति में सहयोगी माना गया है । साधना में मनोविकारों का अभाव-साधना के मार्ग में शरीर को सुखी बनाना और विभूषित करना जिस प्रकार निषिद्ध है उसी तरह से मनोविकारों का भाव भी निषिद्ध माना गया है। दोनों के सद्भाव में साधकयोगी साधना पथ पर अग्रगामी नहीं हो सकता। इसलिए जैन पद्धति ने 'आतापना' के अन्तर्गत सूर्य की प्रखर किरणों के ताप, शीत आदि को सहन करना विधियुक्त माना है। शरीर के लिए साज-सज्जा आदि का परित्याग 'विभूषा' तथा शृगार आदि का निषेध 'परिकर्म' के अन्तर्गत व्यवहित किया गया है। इन तीनों प्रक्रियाओं के साथ कायक्लेश के चारों प्रकार शरीर को संयमित रखने एवं उससे निर्मोह स्थिति उत्पन्न करने के साधन होते हैं। शरीर के इस नियन्त्रणपूर्वक संयम की ही तरह मनोनियंत्रण की विधि का भी जैनागमों में विधान किया गया है। मन के नियंत्रण से पंचेन्द्रियों का नियंत्रण भी स्वाभाविक रूप में सम्पन्न हो जाता है। इसके अनन्तर मानसिक विकारों क्रोध, मान, माया और लोभ आदि मनोविकारों का नियंत्रण कर सकना भी सरल हो जाता है। मन चूंकि स्वभावतः चञ्चल है इसलिए एक बार उसका नियंत्रण कर लेने पर यह आवश्यक हो जाता है कि वह निरन्तर बना रहे । अन्यथा कारावास से छूटे हुए अपराधी की भांति वह अपनी पूर्ण सामर्थ्य से विषयाभिमुख होकर भागने लग जाता है और फिर उसका नियंत्रण कर पाना असम्भव हो जाता है । इस प्रक्रिया का जैन साधकों ने स्वयं अनुभव किया और उन्होंने यह विशेष रूप से विधान किया कि इन्द्रियों और मनोविकारों पर निग्रह प्राप्त करने के बाद साधक स्वयं को शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्तियों से सुरक्षित रखे तथा विविक्त स्थान में ही अपना शयन, बैठना आदि किया करे । -- - ..'.'5.8z 4 / Gainelibrary.org Jain Education Thternational Private Personal use onlyPage Navigation
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