Book Title: Jain Sadhna Paddhati Author(s): M P Patairiya Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 7
________________ کر जैन-साधना पद्धति: एक विश्लेषण | ३४५ सभी प्रकार के अभिमानों से शून्य होकर मृदुस्वभाव ग्रहण करना । ( ४ ) आर्जव ( सहजता ) - समस्त आचार एवं व्यवहार में सहज स्वाभाविकता की स्वीकृति । इन्हीं चार विधाओं को शुक्लध्यान का आलम्बन माना गया है । अनुप्रेक्षाओं की चतुविधता निम्न प्रकार है- (१) अनन्तवृत्ति अनुप्रेक्षा यह भय परम्परा कभी भी समाप्त नहीं होने वाली है। इसलिए यह अनुपादेय है इत्यादि भावना, (२) विपरिणामानुप्रेक्षा - सभी पदार्थ नित्य परिणमनशील हैं और इनका विपरीत परिणाम आत्मा पर होता है, इत्यादि भावना । (३) अशुभानुप्रेक्षा-जगत के सभी प्रकार के सम्बन्ध आत्मप्राप्ति के लिए अकल्याण कारी हैं, इत्यादि भावना, (४) अपायानुप्रेक्षा -- जगत सम्बन्धानुसार समस्त कर्मों के आस्रव बन्ध के हेतु हैं, अतः ये सभी कर्म हेय या अनुपादेय हैं, इत्यादि भावना । शुक्लध्यान के लक्षण आदि के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि इसके लिए आत्म तथा आत्मिक भावनाओं की विशेष अपेक्षा होती है । अनित्य-अशरण आदि भावनाओं के बारह प्रथम की चार भावनाएं धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाओं के रूप में स्वीकार की गयी है । ध्यान की प्रमुख स्थितियाँ - जैन साधना पद्धति पर विशेष दृष्टिपात करने पर यह तत्त्व निष्कर्ष रूप में प्रकट होता है कि जैन साधना पद्धति की परम्परा मोक्ष प्राप्ति तक एक निर्धारित क्रम के अनुसार चलती है जिसे साधक की 'सांसारिक स्थिति' से लेकर 'मोक्ष प्राप्ति' पर्यन्त तक ग्यारह २५ प्रमुख अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है। इन अवस्थाओं की संज्ञा 'भूमिका' भी स्वीकार की गयी है ये अवस्थाएं हैं-१ सम्यष्टि २ देवती ३ महाव्रती ४ अमल, ५ अपूर्वकरण ६ अनिवृत्ति, बादर ७ सूक्ष्मलोभ, ८ उपशान्तमोह, १ क्षीणमोह, १० सयोगि केवली और ११ अयोगि केवली । 1 इनमें से प्रथम तीन स्थितियों में धर्मध्यान मात्र होता है। किन्तु चतुर्थ स्थिति में धर्मध्यान के साथ-साथ अंशतः शुक्लध्यान २६ भी होता है। यहाँ से प्रारम्भ कर ७वीं स्थिति सूक्ष्म लोभ तक शुक्ल ध्यान का मात्र प्रथम चरण होता है । क्षीणमोह वीतराग नामक हवीं स्थिति में शुक्लध्यान का द्वितीयचरण पुर्णता को प्राप्त हो जाता है । १०वीं सयोगि केवल स्थिति के अन्त में शुक्लध्यान का तृतीयचरण पूर्ण होता है। क्योंकि इस अवस्था में केवली योगी के शरीर की सत्ता वर्तमान रहती है। जबकि ११वीं स्थिति में यह ध्यान चतुर्थ चरण के साथ-साथ स्वयं भी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है । ध्यान का उद्देश्य - आत्मा सूक्ष्म और स्थूल द्विविध में बद्ध आत्मा के ज्ञान के साधन मन और इन्द्रियाँ होती हैं। शरीरों से वेष्ठित है । इस सामान्य सांसारिक स्थिति इनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बाह्य विषयों की जानकारी में होती है। ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में इस बाह्य प्रवृत्ति को अन्तः की ओर अग्रसर करने का अभ्यास किया जाता है। इसलिए ध्यान का सामान्य उद्देश्य है- "लब्धि" किन्तु इस प्रारम्भिक स्थिति को ही अन्त नहीं माना जा सकता । ध्यान का अन्त होता है ११वीं अयोगि केवली स्थिति में और इस स्थिति का दूसरा रूप होता है— 'परमात्मभाव' । अत: ध्यान का चरम उद्देश्य भी जैन परम्परा में यही स्वीकार किया गया है। जीव की सामान्य बाह्य बहिर्दर्शन प्रवृत्ति को जब तक समाप्त नहीं किया जाता और परमात्मभाव अन्तर्दर्शन की ओर अभिमुख नहीं हुआ जा सकता । फलतः ध्यान के स्वभावतः मुख्य एवं गौण, दो सामान्य भेद बन जाते हैं। ध्यान की चरम स्थिति में पदार्पण करने पर साधक योगी में जगत के तमाम जीवों को कर्मबन्धन से मुक्त कर सकने की सामर्थ्य सुलभ हो जाती है भले ही इसका प्रयोग वे कभी न करे । ० स्वभाव में अवगाहना प्रकार हैं । इनमें से ध्यान का महत्व - जैनागमों में ध्यान का आवश्यक विधान किया गया है - "जैनमुनि दिन के में आहार और चतुर्थ प्रहर में पुनः .34 स्वाध्याय करे ध्यान, तृतीय प्रहर में निद्रा तथा चतुर्थ पहर में पुनः ३२ में काफी परिवर्तन हुआ है। फलतः जैनमुनियों एवं साधु Jam Codes महत्त्व इसी से जाना जा सकता है कि जैन मुनियों के लिए यह प्रथम प्रहर में स्वाध्याय द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर । इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में स्वाध्याय करे । किन्तु काल क्रमानुसार मुनियों के इस विधान साध्वियों में ज्ञान दर्शन की क्षति हुई है। श्रमण साधना का लक्ष्य - विश्व की किसी भी वस्तु को पूर्ण बनाने के लिए पदार्थ विषयक ज्ञान एवं क्रिया سے 000000000000 R 000000000000 Montebhakt SB1Page Navigation
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