Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 11
________________ अङ्गल-क्षेत्र की परिधि मापने के लिए आठ जूं विस्तार का एक मापक। अङ्गोपाङ्ग नामकम-शरीर के अवयवों की रचना में कारण भूत कर्म विशेष । अचक्षुदर्शनचक्षु को छोडकर इन्द्रिय और मन से होने वाला सामान्य बोध । अचित्त-१. निर्जन्तुक, २. ग्राह्य पदार्थों के सचित्ताचित्त का विचार, ३. प्रासुक। अचेलक-वस्त्र आदि का परिग्रह त्याग करने वाला मुनि । अचौर्य-१. देय/ग्राह्य वस्तु के साथ संक्लेश-परिणाम रहित प्रवृत्ति, २. न्याय-निष्ठापूर्वक आजीविका-उपार्जन, ३. तीसरा अणुव्रत/महाव्रत । अजीव-चेतना-शून्य, अनुभव-रहित पौद्गलिक निर्जीव तत्त्व । अक्ष-भव्यत्व रहित प्रज्ञा-हीन जीव । अशात भाव-प्रमादवश अज्ञान प्रवृत्ति । अशात-सिद्ध-विना जाने प्रमादवश अपने मत की पुष्टि । अज्ञान-आत्म-स्वभाव विमुख मिथ्या ज्ञान । अप्ठम-तीन दिन का पूर्ण उपवास ।

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