Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Merutungacharya, Shilratnasuri, Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 7
________________ प्रस्तावना. मनुष्यनो स्वभाव गतानुगतिक छे. जे कार्यथी माणसनी कीर्ति गवाय छे, ते कार्यतुं अनुकरण करवा अन्य मेघदूतना माणसो आकर्षाय छे. जेम व्यवहारमा कोइ पण अनुकरणो माणस जे व्यवसायथी अर्थलाभ, कीर्तिलाभ प्राप्त करी शके छे ते ज व्यवसायमां लक्ष्मीनिवास छे एम समजी बीजा माणसो ते रस्ते दोराय छे. परंतु अनुकरण ते अनुकरण ज रहे छे. पूरी प्रतिभा विना मूळ स्थान प्राप्त थतुं नथी. साहित्यमां पण आ प्रमाणे ज बन्युं छे. जे कविनी जे कृतिथी कीर्तिकथा फेलाइ, ते कृतिनुं अनुकरण अनेक कविओए भिन्न भिन्न रीते कर्यु . परंतु अत्यार सूधीमां एवो एक पण कवि नथी जन्म्यो के जे मूलकर्तानी समान के तेथी वधारे कीर्ति खाटी गयो होय. जेम जैन कविओमां श्रीसिद्धसेन दिवाकरना कल्याणमंदिरथी अने श्रीमानतुंगसूरिना भक्तामरस्तोत्रथी अनेक विद्वानो दिग्मूढ बनी तेमनुं अनु. करण करी कइक कविओए ते स्तोत्रनु आदि या अंतनुं पाद लेइ पादपूर्तिओ रूपे अनेक स्तोत्रो रच्यां छे. तो पण ते स्तोत्रोनी प्रसन्नता, गंभीरता, कर्णप्रियता के सरलता न ज आवी शक्यां. आ ज प्रमाणे सिंदूरप्रकरना अनुकरण रूपं अनेक कविओए तेवां प्रकरोने जन्म आप्यो पण ते सरळता, ते भाव, ते प्रसाद न ज लावी शक्या. आज प्रमाणे जेनेतर कविओमां जयदेवना गीतगोविंदनी मोहनीमां मूढ बनी घणा कविओए विविध गीतो बनाव्यां, कवि अमरुना शतक पाछळ तणाइ अनेक कविओए अनेक शतको बनाव्या. परंतु मूळकर्ता ओना स्थाननी योग्यता तेओ न बतावी शक्या. आज प्रमाणे कविकुलशिरोमणी कालिदासना मेघदतना रसना, सौंदर्यना अनेक भोगीओ अनुकरण करी अनेक दूतकाव्योने पोतानी पाछळ मूकता गया छे.

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