Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Merutungacharya, Shilratnasuri, Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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जैनमेघदूतनी
तीवापाया त्वदुपगमनं स्वप्नमात्रेऽपि नापं "क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्तः" ॥ ४ ॥
सर्ग ४.
"तत्र व्यक्तं दशदि चरणन्यासमधेन्दुमौले-"
भर्तुस्त्रिभुवनगुरोरर्हतः सत्सपर्यैः । "शश्वत्सिद्घरुपहृतबलिं भक्तिनम्रः परीयाः" पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव ॥ ६५ ॥
इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्टय मेघं
बहुगुणमपदोषं कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्टतादा शशाई
भुवनमवतु देवस्सर्वदाऽमोघवर्षः ॥ जिनसेने आ काव्यमा पार्श्वनाथना चरितने गुंथ्युं छे. जिनसेने प्रथम जैनहरिवंशपुराण शाके ७०५ मां लख्युं अने आठमा सैकाना उत्तरार्धमां पाश्र्धाभ्युदय लग्यु एम मानवामां आवे छे. आ काव्यना कर्ता श्रीवादिचंद्र छे. आमना विषे वधारे जाण
वामां आव्युं नथी. आ काव्य १०१ श्लोक पवनदूत पर्यंत छे अन निर्णयसागरनी ग्रंथमालामां प्रगट
थयुं छे. ( काव्यमाला गु. १३). जैन ग्रंथावलीना अवलोकनथी जणाय छे के, श्वेतांबरसंप्रदायमा ए नामना कोइ साधु थया नथी पण तेमां दिगंबरसंप्रदायमा ज्ञानसूर्योदय नामक नाटकना कर्ता तरीकेनी नोंध छे. (पृ० ३३६). कदाचित् आ काव्यनी रचना ते सूरिनी होय. आ काव्यमां जो के स्पष्ट कालिदासना मेघदूतनी छाया छे, परंतु आ काव्य मेघदूतनी समस्यापूर्ति नहीं होतां स्वतंत्र कृति छे. अने तेनी रचना अति प्रासादिक छे. जिज्ञासुए निर्णयसागर काव्यमालागुच्छक १३ मो वांचवो जोइए.

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