Book Title: Jain Meghdutam
Author(s): Merutungacharya, Shilratnasuri, Chaturvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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जैनमेघदूतनी सुखोने छोडी देवां जोइए. कोशाने पोतानी अज्ञानतानु भान थाय छे अने स्थूलभद्रना मार्गर्नु अवलंबन करे छे. कविए काव्यनी शरुआत साधुदशामां स्थूलभद्र कोशाने घेर आवे छे, त्यांथी करी छे. पछी नायकनायिकानो परस्पर संवाद चितरी काव्यनी पूर्णाहुती कोशा स्थूलभद्रना मार्गन अनुसरे छे, त्यां थाय छे. ___ काव्यकार चारित्रसुंदर गणी तेमनी केटलीक कृतिओथी जैनसमाजमां सारी रीते परिचित छ. तेमनी कृतिओ पंकी श्रीकुमारपाल महाकाव्य, श्रीमहीपालचरित्र अने आचारोपदेश आदि सुप्रसिद्ध छे. तेमना विप विशेष लखवू ते विषयांतर गणाय. आ स्थळे वांचकोना विनोदनेमाटे शीलदतना केटलाक श्लोको आपवा ठीक समजुं छं.
भुक्त्वा भोगान् सुभगतिलकः कोशया सार्द्धमिद्धान्
धन्यो मान्यो निखिल विदुपां भद्रया स्थूलभद्रः । चक्रं श्रुत्वा जनकनिधनं जातसंवेगरङ्गः
स्निग्धन्छायातरुपु वसति रामगिर्याश्रमेषु ॥ १ ॥ चित्त मत्त्वा विषयनिचयं सत्वरं गत्वरं वं
गच्छन्नेपोऽध्वनि घनजिनध्यानसंलीनचित्तः । शान्तं कान्तं रसमिव गिगै श्रीगुरुं भद्रबाहुं __ वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ॥ २ ॥ कामान्धोऽहं तदिह बहुधा कर्ममोहादकार्पम्
जानात्यन्यो न हि जिनपतेर्यद्विपाकं मुनीश ! । यावजनी वचनरचनां वा न विन्दन्ति तावत्
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाऽचेतनेषु ॥ ५॥ .
x x x x x स्वामिन्नङ्गीकुरु परिचितं स्वाधिकारं पुनस्तं
भोगान् भुझ्व प्रिय ! सह मया साधुवेपं विहाय । दोलाकेलिं किल कलयतः कौतुकात् काननान्तः
सम्पत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः ॥ ११ ॥

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