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जैन काल-गणना है और कतिपय का खंडन भी, तो भी जब तक इस थेरावली की मूल पुस्तक परीक्षा की कसौटी पर चढ़ाकर प्रामाणिक नहीं ठहराई जाती, इसके उल्लेखों से चितित विषय में रद्दो-बदल करना उचित नहीं है। वस्तुतः हमारी गाना से वीर निर्वाण संवत् विषयक जो मुख्य सिद्धांत स्थापित होता है उसका, यह गणना भी वीर और विक्रम का मृत्यु-अंतर ४७० वर्ष का बताकर समर्थन ही कर रही है। अस्तु ।
थेरावली में जो जो नई बातें दृष्टिगोचर हुई हैं उनकी सत्यता के विषय में हमें अधिक संशय करने की आवश्यकता नहीं है। इनमें से कतिपय घटनाओं का तो पुराने से पुराने शिलालेखों और ग्रंथों से भी समर्थन होता है। श्रेणिक
और काणिक के जैन होने की बात जैनसूत्रों में प्रसिद्ध है, इनके द्वारा कलिंग के तीर्थरूप पर्वत पर जिन-प्रासाद और स्तूपों का बनना काई आश्चर्य का विषय नहीं है। नंद राजा द्वारा कालिग से जिन-प्रतिमा का पाटलिपुत्र में ले जाना और वहाँ से खारवेल द्वारा उसका फिर कलिंग में ले पाना खारवेल के लेख से ही सिद्ध हे। कुमारी पर्वत पर खारवेल के कराए हुए धार्मिक कार्य तथा अंग सूत्रों के
(१) खारवेल के, अपन राज्य के तेरहवें वर्ष में, कुमारी पर्वत ( उदयगिरि ) की निपद्याओं (स्तूपों) में रहनेवालों के लिये राज्य की क से आप बांधने के संबंध में इस प्रकार उल्लेख है ---
"तेरसमे च बसे लुपवत विजयित्र कुमारी परते अहितेय ॥ ५-खिमत्र्यसंताहि कारयनिसीदीवाय यापजावकेहि राजभितिनि चिनवतानि वो सासितानि वो सासितानि [] पूजनि कत-उवासा खारवेल सिरिना जीवदेवसिरिकल्पं राखिता [1]" (बि. श्रो० ५० पु० ४ भा०४)
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