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नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रभृति १२५ निग्रंथ एकत्र हुए। उस समय उन निग्रंथों के अवशेष मुख-पाठों ( कंठस्थ पाठों) को मिलाकर प्राचार्य गंधहस्ती आदि स्थविर की सम्मतिपूर्वक आर्य स्कंदिलजी ने ग्यारह अंगों की संकलना की और स्थविरप्रवर स्कंदिल की प्रेरणा से प्राचार्य गंधहस्ती ने भद्बाहु नियुक्ति के अनुसार उन ग्यारह अंगों पर विवरण की रचना की। तब से सर्व सूः भारतवर्ष में माथुरी वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुए।
मथुरा - निवासी शिवालवंश - शिरोमणि श्रावक पालाक ने गंधहस्ती विवरण सहित उन सर्व सूत्रों को ताड़पत्र प्रादि में लिखवाकर पठन-पाठन के लिये निर्ग्रथों को अर्पण किया। इस प्रकार जैनशासन की उन्नति करके स्थविर प्रार्य स्कंदिल विक्रम संवत् २०२ में मथुरा में ही अनशन कर के स्वर्गवासी हुए।"
आर्य स्कंदिल के वृत्तांत के साथ ही इस थेरावली की समाप्ति होती है। इसमें जिन जिन विशेष बातों का वर्णन है उनका यथास्थान उल्लेख किया जा चुका है।
इस थेरावली में जो गणना-पद्धति दी है वह कहाँ तक टीक है, यह कहना कठिन है: हाँ, इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि यह पद्धति भी है प्राचीन। आचार्य देवसेनादि ने विक्रम मृत्यु संवत् का जो निर्देश किया है उसका बीज इसी गणनापद्धति में संनिहित है, यह पहले कहा जा चुका है।
हमने “वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना" नामक निबंध में और उसके टिप्पण में जिन जिन बातों की चर्चा की है उनमें से कतिपय बातों का इस थेरावली से समर्थन होता
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