Book Title: Jain Jyotish Sahitya
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 2
________________ २२९ जैन ज्योतिष साहित्य का सर्वेक्षण होनेवाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया है । अभिप्राय यह है कि श्रावण मास के धनिष्ठा, श्रवण और अभिजित् भाद्रपदमास के उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद और शतमिषा; आश्विनमास के अश्विनी और रेवती, कार्तिकमास के कृत्तिका कौर भरणी, अगहन या मार्गशीर्ष मास के मृगशिरा और रोहिणी, पौषमास के पुष्य, पुनर्वसु और आर्द्रा, माघमास के मघा और आश्लेषा, फाल्गुनमास के उत्तराफाल्गुनी और पूर्वाफाल्गुनी, चैत्रमास के चित्रा और हस्त, वैशाखमास के विशाखा और स्वाति, ज्येष्ठमास के ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा एवं अषाढमास के उत्तराषाढा और पूर्वाषाढा नक्षत्र बताए गए हैं ।' प्रत्येक मास की पूर्णमासी को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुलसंज्ञक, दूसरा उपकुलसंज्ञक और तीसरा कुलोपकुल संज्ञक होता है । इस वर्णन का प्रयोजन उस महीने का फलनिरूपण करना है। इस ग्रन्थ में ऋतु, अयन, मास, पक्ष और तिथि सम्बन्धी चर्चाएँ भी उपलब्ध हैं । समवायाङ्ग में नक्षत्रों की ताराएँ, उनके दिशाद्वार आदि का वर्णन है। कहा गया है--" कत्तिआइया सत्तणक्खत्ता पुव्वदारिआ। महाझ्या तत्तणक्खत्ता दाहिणदारिआ। अणुराहा-इया सत्तणक्खता अवरदारिआ । धनिट्ठाइया सत्तणखता उत्तरदारिआ"२ अर्थात् कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा ये सात नक्षत्र पूर्वद्वार, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा ये नक्षत्र दक्षिणद्वार, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् और श्रवण ये सात नक्षत्र पश्चिमद्वार एवं धनिष्ठा, शतमिषा पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी और भरणी ये सात नक्षत्र उत्तरद्वार वाले हैं । समवायांग १।६, २।४, ३।२, ४।३, ५।९ में आयी हुई ज्योतिष चर्चाएँ महत्त्वपूर्ण हैं । ___ठाणांग में चन्द्रमा के साथ स्पर्श योग करनेवाले नक्षत्रों का कथन किया गया है। वहाँ बतलाया गया है-कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा ये आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ स्पर्शयोग करनेवाले हैं। इस योग का फल तिथियों के अनुसार विभिन्न प्रकार का होता है। इसी प्रकार नक्षत्रों की अन्य संज्ञाएँ तथा उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूर्व दिशा की ओर से चन्द्रमा के साथ योग करनेवाले नक्षत्रों के नाम और उनके फल विस्तार पूर्वक बतलाये गये हैं। ठाणांग में अंगारक, काल, लोहिताक्ष, शनैश्चर, कनक, कनक-कनक, कनक-वितान, कनक-संतानक, सोमहित, आश्वासन, कज्जीवग, कवट, अयस्कर, दंदुयन, शंख, शंखवर्ण, इन्द्राग्नि, धूमकेतु, हरि, पिंगल, बुध, शुक्र, वृहस्पति, राहु, अगस्त, भानवक, काश, स्पर्श, धुर, प्रमुख, विकट, विसन्धि, विमल, पीपल, जटिलक, अरुण, अगिल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवास्तिक, वर्द्धमान, पुष्पमानक, अंकुश, प्रलम्ब, नित्यलोक, नित्योदचित, स्वयंप्रभ, उसम, श्रेयंकर, प्रेयंकर, आयकर, प्रभंकर, अपराजित, अरज, अशोक, विगतशोक, निर्मल, विमुख, वितत, वित्रस्त, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्तक, एकजटी, द्विजटी, करकरीक, राजगल, पुष्पकेतु, एवं भावकेतु आदि ८८ ग्रहों के नाम बताए गये हैं। समवायांग में भी उक्त ८८ ग्रहों का कथन आया है। “एगमेगस्सणं चंदिम सूरियस्स अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो" अर्थात् एक एक चन्द्र और सूर्य के परिवार, में अट्ठासी १. प्रश्नव्याकरण, १०.५. २. समवायांग, स. ६, सूत्र ५. ३. ठाणांग, पृ. ९८-१००. ४. समवायांग, स. ८८.१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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