Book Title: Jain Jyotish Sahitya
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 5
________________ २३२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल और पूर्वाषाढ़ ये पन्द्रह नक्षत्र बताए गए हैं । पैंतालीस मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करनेवाले उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, पुर्नवसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा और उत्तराषाढ़ा ये छः नक्षत्र एवं पन्द्रह मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करनेवाले शतमिषा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र बताये गये हैं। ___ चन्द्रप्रज्ञप्ति के १९ वें प्राभत में चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बतलाया है तथा इसके घटने-बढ़ने का कारण भी स्पष्ट किया गया है। १८ वें प्राभृत में पृथ्वी तल से सूर्यादि ग्रहों की ऊँचाई बतलाई गयी है। . ज्योतिष्करण्डक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है इसमें अयनादि के कथन के साथ नक्षत्र लग्न का भी निरूपण किया गया है । यह लग्न निरूपण की प्रणाली सर्वथा नवीन और मौलिक है लग्गं च दक्खिणाय विसुवे सुवि अस्स उत्तरं अयणे । लग्गं साई विसुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे ॥ अर्थात् अश्विनी और स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न बताये गये हैं। जिस प्रकार नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था को राशि कहा जाता है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था को लग्न बताया गया है । इस ग्रंथ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि, भरण्यादि, श्रवणादि एवं अभिजित आदि नक्षत्र गणनाओं की विवेचना की गयी है । ज्योतिष्करण्ड का रचनाकाल ई. पू. ३०० के लगभग है। विषय और भाषा दोनों ही दृष्टियों से यह अन्य महत्त्वपूर्ण है । अंगविज्जा का रचनाकाल कुषाण गुप्त युग का सन्धि काल माना गया है। शरीर के लक्षणों से अथवा अन्य प्रकार के निमित्त या चिन्हों से किसी के लिए शुभाशुभ फल का कथन करना ही इस ग्रंथ का वर्ण्य विषय है। इस ग्रंथ में कुल साठ अध्याय हैं। लम्बे अध्यायों का पाटलों में विभाजन किया गया है। आरम्भ में अध्यायों में अंगविद्या की उत्पत्ति, स्वरूप, शिष्य के गुण-दोष, अंगविद्या का माहात्म्य प्रभृति विषयों का विवेचन किया है। गृह-प्रवेश, यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा आदि के द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। प्रवासी घर कब और कैसी स्थिति में लौटकर आयेगा इसका विचार ४५ वें अध्याय में किया गया है । ५२ वें अध्याय में इन्द्रधनुष, विद्युत, चन्द्रग्रह, नक्षत्र, तारा, उदय, अस्त, अमावास्या, पूर्णमासी, मंडल, वीथी, युग, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, उल्कापात, दिशादाह आदि निमित्तों से फलकथन किया गया है । सत्ताईस नक्षत्र और उनसे होनेवाले शुभाशुभ फल का भी विस्तार से उल्लेख है। संक्षेप में इस ग्रन्थ में अष्टांग निमित्त का विस्तारपूर्वक विभिन्न दृष्टियों से कथन किया गया है।' लोकविजय-यन्त्र भी एक प्राचीन ज्योतिष की रचना है। यह प्राकृत भाषा में ३० गाथाओं में लिखा गया है । इसमें प्रधानरूप से सुभिक्ष, दुर्भिक्ष की जानकारी बतलायी गयी है । आरम्भ में मंगलाचरण करते हुए कहा है १. अंगविज्जा, पृ. २०६-२०९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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