Book Title: Jain Hitopadesh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal

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Page 179
________________ ( १९५ ) तेषामुभौ विनेयौ, विद्वान् कल्याणविमल इत्याहः ॥ तत्सोदरो द्वितीयः, केसरविमलाभिघोऽवरजः ॥ ४ ॥ तेन चतुर्भिर्व, रचिता भाषानिबद्धरुचिरेयं ॥ • सूक्तानामिह माला, मनोविनोदाय बालानां ॥ ५ ॥ वेदद्रियार्ष चंद्र, संवत् १७९४ प्रमिते श्री विक्रमाहृतेवर्षे ॥ अग्रंथि सूक्तमाला, केसरविमलेन विबुधेन ॥ ६ ॥ " इति श्री सुक्तमुक्तावली मूलपाठः समाप्तः

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