Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ इसमें भी तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया है । चाहे कर्मों की अवस्थाएँ और उनके भेदों को लेकर भारतीय दर्शनों में कुछ मतभेद रहा हो किन्तु कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति में वे सब एकमत हैं। बन्धन और मोक्ष नामक चतुर्थ अध्याय में बन्धन के कारण और उसके स्वरूप का बहुत ही प्रामाणिकतापूर्वक विवेचन किया गया है और अन्त में मोक्षमार्ग के रूप में सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विवेचन भी महत्वपूर्ण है, जो लेखक की विद्वता को प्रति. बिम्बित करता है । यद्यपि जैन दर्शन से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ हिन्दी भाषा में उपलब्ध हैं, फिर भी आत्मतत्त्व-सम्बन्धी जितना विस्तृत और गंभीर विवेचन हमें इस ग्रन्थ में मिल जाता है, उतना अन्यत्र नहीं उपलब्ध होता है । लेखक ने स्थान-स्थान पर संस्कृत और प्राकृत भाषा के प्रमाण उद्धृत करके ग्रन्थ की प्रामाणिकता को बढ़ा दिया है । मेरा विश्वास है कि हिन्दी के दार्शनिक साहित्य में इस ग्रन्थ को समुचित स्थान प्राप्त होगा और न केवल जैन दर्शन के अध्येता अपितु भारतीय दर्शन के अध्येता भी आत्म-तत्त्व की विवेचना के सन्दर्भ में इस प्रन्थ से लाभान्वित होंगे। न० शं० सु० रामन वाराणसी प्रोफेसर एवं अध्यक्ष दर्शन विभाग २४॥३॥१९८४ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 336