Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 10
________________ आमुख दार्शनिक चिन्तन के क्षेत्र में भारत अग्रणी रहा है । वेद, उपनिषद् एवं आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के विविध निकायों के उद्भव में उसकी इस चिन्तनशीलता को देखा जा सकता है । कठोपनिषद् में श्रेय और प्रेय मार्ग की विवेचना मिलती है । श्रेय का मार्ग आध्यात्मिक साधना का मार्ग है और प्रेय का मार्ग जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति का मार्ग है। इन्हीं दो चिन्तन-धाराओं के आधार पर प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गों का विकास हुआ। निवृत्तिमार्ग की यह धारा भी हमें बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी के सम्वाद में परिलक्षित होती है। ___ जैन धर्म का विकास भी इसी निवृत्ति मार्गी विचारधारा पर हुआ है । जैन दार्शनिक साहित्य में आत्मा के स्वरूप, उसके बन्धन के कारण और मुक्ति के उपायों के सम्बन्ध में गहन विवेचना उपलब्ध होती है । डा० लालचन्द्र जैन के 'जैन दर्शन में आत्म-विचार' नामक इस ग्रन्थ में भारतीय दार्शनिकों के आत्मतत्त्व सम्बन्धी चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन के आत्म-सम्बन्धी विचार को प्रस्तुत किया गया है। डा० जैन ने क्रमपूर्वक और गहराई से विषय का जो विवेचन किया है, वह प्रशंसनीय है। उन्होंने जैन-दर्शन-सम्मत आत्मा के स्वरूप के विवेचन के सम्बन्ध में अन्य दर्शनों की मान्यताओं का पूर्वपक्ष के रूप में प्रतिपादन कर फिर जैन दर्शन के आत्मतत्त्व-सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । इस प्रकार ग्रन्थ में आत्मतत्त्व के विवेचन को लेकर प्राचीन पारम्परिक शैली का निर्वाह किया गया है यह उनकी शैलीगत विशेषता है । प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका में लेखक ने विभिन्न भारतीय दर्शनों के आत्मा..बन्धी विचारों का प्रस्तुतीकरण प्रामाणिकतापूर्वक किया है। जिससे हमें संक्षेप में सभी भारतीय दर्शनों की आत्मा-सम्बन्धी अवधारणाओं का ज्ञान हो जाता है । दूसरा अध्याय आत्मा के स्वरूप-विमर्श से सम्बन्धित है । इसमें उन्होंने पारमार्थिक और व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा के स्व लक्षणों एवं कर्तृत्व-भोक्र्तृत्व आदि गुणों का जो विवेचन किया है, वह समग्र भारतीय दर्शनों की मूलभित्ति सिद्ध होता है। मेरी दृष्टि में सभी भारतीय दर्शन चाहे वे आस्तिक दर्शन हों या नास्तिक दर्शन-अपने आत्म-सम्बन्धी विचारों को लेकर उपनिषदों से प्रभावित रहे हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के आत्मा और कर्मविपाक नामक तृतीय अध्याय में कर्म के स्वरूप एवं प्रकारों का वर्णन बहुत ही विस्तार के साथ हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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