Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 13
________________ विषय चैतन्यवाद (४४); बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद (४५); पुद्गल नैरात्म्यवाद, पुद्गलास्तिवाद ( ४७ ) ; त्रैकालिक धर्मवाद और वर्तमानिक धर्मवाद (४९); धर्म नैरात्म्य-निःस्वभाव या शून्यवाद (५०) ; विज्ञप्तिमात्रतावाद (५१); न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मसिद्धि (५२); मीमांसा दर्शन में आत्मास्तित्व- सिद्धि, अद्वैत वेदान्त दर्शन में आत्मसिद्धि (५३); जैनदर्शन में आत्मसिद्धि (५४); पूज्यपादाचार्य : प्राणापान कार्य द्वारा आत्म- अस्तित्व का बोध, अकलंकदेवभट्ट, बाधक प्रमाण के अभाव से आत्मास्तित्व- सिद्धि ( ५५ ) ; सकलप्रत्यक्ष से आत्मास्तित्व सिद्धि ( ५६ ); संकलनात्मक ज्ञान से आत्मास्तित्वसिद्धि, संशय द्वारा आत्मास्तित्वसिद्धि (५७); आचार्य जिनभद्रगणि श्रमण, गुणों के आधार के रूप में आत्मसिद्धि (५९ ); शरीर के कर्त्ता के रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि (६०); आदाता के रूप में आत्मास्तित्व-सिद्धि (६०); शरीरादि के भोक्ता के रूप में आत्मास्तित्वसिद्धि, देहादि संघातों के स्वामी के रूप में आत्मास्तित्व सिद्धि, व्युत्पत्तिमूलक हेतु द्वारा आत्मास्तित्व सिद्धि (६१); हरिभद्राचार्य (६१); आचार्य विद्यानन्द, गौण कल्पना से आत्मास्तित्व बोध (६२); आचार्य प्रभाचन्द्र (६३); मल्लिषेण सूरि (६५); गुणरत्नसूरि (६६) दूसरा अध्याय : आत्म-स्वरूप प-विमर्श : आत्मा का स्वरूप और उसका विवेचन ( ६८ ) ; अशुद्धात्म स्वरूप-विवेचन (७४); आत्मा का उपयोग स्वरूप ( ७५ ) ; ज्ञान आत्मा से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है (७६); चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, आगन्तुक नहीं ( ७७ ) ; आत्मा चैतन्य के समवाय सम्बन्ध से चैतन्यवान नहीं है (७९); सुषुप्ति अवस्था में चैतन्य का अनुभव होता है (८१); ज्ञान आत्मा का स्वभाव हैप्रकृति का परिणाम नहीं ( ८३ ); सुषुप्ति अवस्था में ज्ञान का अनुभव होता है ( ८५ ) ; आत्मा का स्व-पर प्रकाश बहुत्व (८७); सांख्य दर्शन में आत्मबहुत्व ( ८८ ); समीक्षा (८९); अनेकात्मवाद और लाइब नित्स व्यापक नहीं है (९४); न्यायवैशेषिक, जैन ( ९५ का गुण नहीं है (९८ ) ; (क्षणिक) नहीं है ( १११ ) ; आत्मा कर्म- संयुक्त है कथंचित् शुद्ध एवं अशुद्ध हैं, आत्मा अमूर्तिक है ( ११४ ) ; आत्मा (८६); आत्म एकात्मवाद की ) ; आत्मा नित्य है ( १०८ ) ; ( ११३); जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only ६८-१७४ (९२); आत्मा अदृष्ट आत्मा आत्मा अनित्य www.jainelibrary.org

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