Book Title: Jain Dharm ki Parampara Itihas ke Zarokhese Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 4
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासहोंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत वस्त्रधारी श्रावक अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी-सातवीं कहा गया वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे। क्योंकि बौद्ध- शती का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे परम्परा में श्रमण (भिक्ष) को भी श्रावक कहा गया है, फिर भी भारत में जैन धर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के इस सम्बन्ध में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। प्रतिनिधि हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम से विलुप्त हो गई है, किन्तु सराक जाति के निर्यन्थ - संघ की धर्मप्रसार - यात्रा : रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं। सराक शब्द भगवान महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव- श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश रात्रिभोजननिषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। ही था। किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर भी आगमों और निर्यक्तियों की रचना उत्तर और दक्षिण के निर्यन्य श्रमणों में आधार-भेद : तथा तीर्थंकरों की अवधारणा के विकास-काल तक उत्तरप्रदेश, दक्षिण में नया निर्ग्रन्थ-संघ, अपने साथ विपुल प्राकृतहरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भाग तक ही जैन-साहित्य तो नहीं ले जा सका, क्योंकि उस काल तक निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी। तीर्थंकरों के कल्याणक्षेत्र भी जैनागम-साहित्य की पूर्ण रचना ही नहीं हो पाई थी, किन्तु वह यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थंकर है, जिनका अपने साथ श्रुत-परंपरा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर सम्बन्ध शोरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त के कठोर आचारमार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण गिरनार पर्वत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बरपरम्परा का पूर्वज माना गया है। किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो यही दक्षिणी अचेल-निर्ग्रन्थ-संघ है। इस संबंध में अन्य कुछ निकटता वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिणी बिहार ही था जिसका कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से जोड़ा केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्थापत्यों का प्रभाव-क्षेत्र गया होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्यों का उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तरप्रदेश था जिसका केन्द्र श्रावस्ती अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें। था। महावीर के अचेल-निर्ग्रन्थ-संघ और पार्थापत्य सन्तरोत्तर जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं, उनसे ऐसा लगता है (सचल)-निग्रन्थ-सघ क साम्मलन का भूमिका भा श्रावस्ता कि निर्ग्रन्थ-संघ अपने जन्मस्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने ___में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के प्रचार-अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालंदा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण की जलवायु उत्तर श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा-सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की। की उपेक्षा गर्म थी अतः अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गए लगभग ई. पू. दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थ-संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई, जबकि उत्तर से निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलतः वे पुनः संघ में कुछ पापित्यों के प्रभाव के और कुछ अति शीतल तमिलनाडु में आ गए। तमिलनाडु में लगभग ई.पू. प्रथम जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और द्वितीय शती में ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन-अभिलेख मिलते हैं, एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर जो इस तथ्य के साक्षी भी हैं कि निर्ग्रन्थ-संघ महावीर के निर्वाण के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं और बौद्धधर्म में भी बद्ध के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की माँग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त ही की थी, जो कि उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक-साहित्य मौर्य को दीक्षित करके दक्षिण गए थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक में निर्ग्रन्थों को एक-शाटक और आजीवकों को नग्न कहा प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकी है. क्योंकि जो गया, यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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