Book Title: Jain Dharm ki Parampara Itihas ke Zarokhese Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 2
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास श्रमणधारा का उद्भव मानव-व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था, जिसमें श्रमण ब्राह्मण- सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का ही सूचक है। निर्ग्रन्थ परंपरा : लगभग ई. पू. सातवीं-छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग था जब जन-समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योगसाधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष से बँधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग में धर्म-परंपराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमशः इन श्रमणों, साधकों एवं चिंतकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा चली और उनकी अलग- अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्गन्थ-परम्परा का उद्भव हुआ, जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पार्श्वापत्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को ज्ञातृपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे । सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्यपुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा । पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से जानी जाने लगी। जैनधर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में मिलता है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आया है। अशोक (ई. पू. तृतीय शताब्दी), खारवेल (ई. पू. द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैनधर्म का उल्लेख निग्रन्थ- संघ के रूप में ही हुआ है। पार्श्व एवं महावीर की परम्परा : ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है कि पहले निर्ग्रन्थधर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण), अंगिरस भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी, जो कि वस्तुतः उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण Jain Education International स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अहंत् कहा गया था किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येकबुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई.पू. पाचवीं या चौथी शती में निर्ग्रन्थ-संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारंभ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि `उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवनकाल में महावीर और पार्श्व की परंपराएँ पूर्णत: एकीकृत नहीं हो सकीं। उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पार्श्वापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी । यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर की परम्परा में विलीन हो गई थी। फिर भी इतना निश्चित है कि पार्श्वापत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा ने पर्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था । पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है । कालान्तर में ऋषभ, नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्राक् - ऐतिहासिक काल के महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ- परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया। ऋषभ आदि तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का प्रश्न : वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि वातरशना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमणधारा उस युग में भी जीवित थी और जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन परंपरा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संयास मार्ग के ले ? ম For Private Personal Use Only Gaboron www.jainelibrary.orgPage Navigation
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