Book Title: Jain Dharm ki Parampara Itihas ke Zarokhese
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 1
________________ जैनधर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से डॉ. सागरमल जैन.... द्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार । व व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के . प्राकृत-साहित्य में ऋषिभाषित (इसिभासियाई) और पाली धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है, साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं। जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य : कि अति प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था। महत्त्वपूर्ण है। आइए! इस महान धर्म-परम्परा का इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करें। ऋषिभाषित, जो कि प्राकृत-जैन आगमों और बौद्ध पाली पिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय श्रमणपरंपरा: जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान विश्व के धर्मो की मुख्यत: सेमेटिक धर्म और आर्य-धर्म, श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धमों में यहदी, ईसाई और मसलमान करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् आते हैं, जबकि आर्य-धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक) बौद्ध तथा शेष सभी प्राकृत और पाली-साहित्य के पूर्व ई. पू. लगभग और जैन धर्मों की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सदर पर्व चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, के देश जापान और चीन में विकसित कुछ कन्फशियस एवं औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण-परम्पराओं के शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं। ४५ 'ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध-परम्परा ___ आर्य-धों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विविध ऋषियों के उपदेश प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है। वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनाग्रही संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है, न तो ऋषिभासित ही धर्म श्रमण-परम्परा के धर्म है। श्रमण-परंपरा की विशेषता (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन-परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध-परम्परा के हैं। जहाँ ऋषिभासित में यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागरकर संन्यास एवं वैराग के माध्यम से निर्वाण की सारिपुत्र, वात्सीपुत्र (वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध-परम्परा प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य , अरुण, असितदेवल, नारद, निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा ने अपनी तप एवं योग की द्वैपायन, अंगरिस भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से संबंधित आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त) मंखली गोशालक, रामपुत्त मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में आदि अन्य स्वतंत्र श्रमण-परंपराओं से संबंधित है। इसी प्रकार अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण-परंपरा में थेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा के, व नारद आदि औपनिषदिक न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं, जो आज वृद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धारायें भी थीं, जो है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी आज विलुप्त हो चुकी है। थी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवनमूल्यों का संघर्ष था। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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