Book Title: Jain Dharm ki Parampara Itihas ke Zarokhese
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210751/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से डॉ. सागरमल जैन.... द्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार । व व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के . प्राकृत-साहित्य में ऋषिभाषित (इसिभासियाई) और पाली धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है, साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं। जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य : कि अति प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था। महत्त्वपूर्ण है। आइए! इस महान धर्म-परम्परा का इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करें। ऋषिभाषित, जो कि प्राकृत-जैन आगमों और बौद्ध पाली पिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय श्रमणपरंपरा: जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान विश्व के धर्मो की मुख्यत: सेमेटिक धर्म और आर्य-धर्म, श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धमों में यहदी, ईसाई और मसलमान करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् आते हैं, जबकि आर्य-धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक) बौद्ध तथा शेष सभी प्राकृत और पाली-साहित्य के पूर्व ई. पू. लगभग और जैन धर्मों की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सदर पर्व चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, के देश जापान और चीन में विकसित कुछ कन्फशियस एवं औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण-परम्पराओं के शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं। ४५ 'ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध-परम्परा ___ आर्य-धों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विविध ऋषियों के उपदेश प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है। वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनाग्रही संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है, न तो ऋषिभासित ही धर्म श्रमण-परम्परा के धर्म है। श्रमण-परंपरा की विशेषता (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन-परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध-परम्परा के हैं। जहाँ ऋषिभासित में यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागरकर संन्यास एवं वैराग के माध्यम से निर्वाण की सारिपुत्र, वात्सीपुत्र (वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध-परम्परा प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य , अरुण, असितदेवल, नारद, निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा ने अपनी तप एवं योग की द्वैपायन, अंगरिस भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से संबंधित आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त) मंखली गोशालक, रामपुत्त मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में आदि अन्य स्वतंत्र श्रमण-परंपराओं से संबंधित है। इसी प्रकार अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण-परंपरा में थेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा के, व नारद आदि औपनिषदिक न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं, जो आज वृद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धारायें भी थीं, जो है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी आज विलुप्त हो चुकी है। थी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवनमूल्यों का संघर्ष था। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास श्रमणधारा का उद्भव मानव-व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था, जिसमें श्रमण ब्राह्मण- सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का ही सूचक है। निर्ग्रन्थ परंपरा : लगभग ई. पू. सातवीं-छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग था जब जन-समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योगसाधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष से बँधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग में धर्म-परंपराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमशः इन श्रमणों, साधकों एवं चिंतकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा चली और उनकी अलग- अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्गन्थ-परम्परा का उद्भव हुआ, जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पार्श्वापत्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को ज्ञातृपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे । सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्यपुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा । पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से जानी जाने लगी। जैनधर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में मिलता है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आया है। अशोक (ई. पू. तृतीय शताब्दी), खारवेल (ई. पू. द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैनधर्म का उल्लेख निग्रन्थ- संघ के रूप में ही हुआ है। पार्श्व एवं महावीर की परम्परा : ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है कि पहले निर्ग्रन्थधर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण), अंगिरस भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी, जो कि वस्तुतः उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अहंत् कहा गया था किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येकबुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई.पू. पाचवीं या चौथी शती में निर्ग्रन्थ-संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारंभ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि `उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवनकाल में महावीर और पार्श्व की परंपराएँ पूर्णत: एकीकृत नहीं हो सकीं। उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पार्श्वापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी । यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर की परम्परा में विलीन हो गई थी। फिर भी इतना निश्चित है कि पार्श्वापत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा ने पर्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था । पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है । कालान्तर में ऋषभ, नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्राक् - ऐतिहासिक काल के महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ- परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया। ऋषभ आदि तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का प्रश्न : वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि वातरशना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमणधारा उस युग में भी जीवित थी और जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन परंपरा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संयास मार्ग के ले ? ম For Private Personal Use Only Gaboron Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्ग्रन्थ-संघ से जुड़ने एवं ऋषभ, नमि, अजित, अर, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को अलग होने की यह घटना निर्ग्रन्थ परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण छोड़कर अन्य तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में घटना है। साथ ही निर्ग्रन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव दोनों ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णतः मौन हैं और इनके प्रति हमारी आस्था संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है। का आधार परवर्ती काल के आगम और अन्य कथा-ग्रन्थ ही है। निर्यन्थ - परम्परा में महावीर के जीवनकाल में महावीर और आजीवक - परंपरा : हुए संघभेद: जैनधर्म के इस पूर्व इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा के महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ-संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण पश्चात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं तो घटना महावीर के जामात कहे जाने वाले जमालि से उनका कल्पसूत्र एवं भगवती में कुछ ऐसे सूचना-सूत्र मिलते हैं, जिनके वैचारिक मतभेद होना और जमालि का अपने पाँच सौ शिष्यों आधार पर ज्ञातपत्र श्रमण महावीर के पाश्र्थापत्यों के अतिरिक्त सहित उनके संघ से अलग होना है। भगवती, आवश्यक-नियुक्ति आजीवकों के साथ भी निकट सम्बन्धों की सूचना मिलती है। और परवर्ती ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है है। निर्ग्रन्थ-संघ-भेद की इस घटना के अतिरिक्त हमें बौद्ध कि महावीर के दीक्षित होने के दसरे वर्ष में ही मंखलीपत्र गोशालक पिटक-साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख भी मिलता है उनके निकट संपर्क में आया था. कछ वर्ष दोनों साथ भी रहे. जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं एवं किन्तु नियतिवाद और पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया। निर्ग्रन्थदोनों अलग-अलग हो गए। हरमन जेकोबी ने तो यह कल्पना संघ के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुँचती है। किन्तु भी की है कि महावीर की निर्ग्रन्थ-परम्परा में नग्नता आदि जो पिटक-साहित्य में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई आचारमार्ग की कठोरता है. वह गोशालक की आजीवकपरंपरा चर्चा नहीं है। एक सम्भावना यह हो सकती है कि यह विवाद का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पर्व भी आजीवकों महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्र को लेकर हुआ होगा। श्वेताम्बर की एक परम्परा थी, जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी और. दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर लेकर मतभेद है। दिगम्बर-परम्परा महावीर के पश्चात् गौतम को साधना की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर-परम्परा सुधर्मा को। श्वेताम्बरआजीवकगोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा आई। क्योंकि परम्परा में जो महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के दूसरे ग्राम में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने पश्चात् गोशालक आजीवक परम्परा से जुड़ा था। या वह प्रारंभ की जो घटना वर्णित है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो में ही आजीवक परम्परा में दीक्षित होकर महावीर के पास आया सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि था फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी बौद्धों ने जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी परवर्ती विवाद के बाद तक भी इस आजीवक-परम्परा का अस्तित्व रहा है। को पिटकों के संपादन के समय महावीर के निर्वाण की घटना यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण - परंपरा थी. के साथ जोड़ दिया हो। मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित जिसके श्रमण जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। हुआ होगा तो वह महावीर के नग्न व वस्त्र रखने वाले श्रमणों के जैन और आजीवक दोनों परम्पराएँ प्रतिस्पर्धी होकर भी एक बीच हुआ होगा। क्योंकि पार्थापत्यों के महावीर के निर्ग्रन्थ संघ दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थी. में प्रवेश के साथ ही उनके संघ में नग्न और सवस्त्र ऐसे दो वर्ग इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों अवश्य ही बन गए होंगे और महावीर ने श्रमणों के इन दो वर्गों के षटविध वर्गीकरण से होती है। निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के को सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्रधारी के रूप श्रमणों से ऊपर और आजीवक-परम्परा से नीचे स्थान दिया में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासहोंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत वस्त्रधारी श्रावक अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी-सातवीं कहा गया वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे। क्योंकि बौद्ध- शती का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे परम्परा में श्रमण (भिक्ष) को भी श्रावक कहा गया है, फिर भी भारत में जैन धर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के इस सम्बन्ध में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। प्रतिनिधि हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम से विलुप्त हो गई है, किन्तु सराक जाति के निर्यन्थ - संघ की धर्मप्रसार - यात्रा : रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं। सराक शब्द भगवान महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव- श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश रात्रिभोजननिषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। ही था। किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर भी आगमों और निर्यक्तियों की रचना उत्तर और दक्षिण के निर्यन्य श्रमणों में आधार-भेद : तथा तीर्थंकरों की अवधारणा के विकास-काल तक उत्तरप्रदेश, दक्षिण में नया निर्ग्रन्थ-संघ, अपने साथ विपुल प्राकृतहरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भाग तक ही जैन-साहित्य तो नहीं ले जा सका, क्योंकि उस काल तक निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी। तीर्थंकरों के कल्याणक्षेत्र भी जैनागम-साहित्य की पूर्ण रचना ही नहीं हो पाई थी, किन्तु वह यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थंकर है, जिनका अपने साथ श्रुत-परंपरा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर सम्बन्ध शोरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त के कठोर आचारमार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण गिरनार पर्वत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बरपरम्परा का पूर्वज माना गया है। किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो यही दक्षिणी अचेल-निर्ग्रन्थ-संघ है। इस संबंध में अन्य कुछ निकटता वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिणी बिहार ही था जिसका कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से जोड़ा केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्थापत्यों का प्रभाव-क्षेत्र गया होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्यों का उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तरप्रदेश था जिसका केन्द्र श्रावस्ती अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें। था। महावीर के अचेल-निर्ग्रन्थ-संघ और पार्थापत्य सन्तरोत्तर जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं, उनसे ऐसा लगता है (सचल)-निग्रन्थ-सघ क साम्मलन का भूमिका भा श्रावस्ता कि निर्ग्रन्थ-संघ अपने जन्मस्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने ___में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के प्रचार-अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालंदा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण की जलवायु उत्तर श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा-सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की। की उपेक्षा गर्म थी अतः अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गए लगभग ई. पू. दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थ-संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई, जबकि उत्तर से निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलतः वे पुनः संघ में कुछ पापित्यों के प्रभाव के और कुछ अति शीतल तमिलनाडु में आ गए। तमिलनाडु में लगभग ई.पू. प्रथम जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और द्वितीय शती में ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन-अभिलेख मिलते हैं, एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर जो इस तथ्य के साक्षी भी हैं कि निर्ग्रन्थ-संघ महावीर के निर्वाण के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं और बौद्धधर्म में भी बद्ध के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की माँग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त ही की थी, जो कि उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक-साहित्य मौर्य को दीक्षित करके दक्षिण गए थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक में निर्ग्रन्थों को एक-शाटक और आजीवकों को नग्न कहा प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकी है. क्योंकि जो गया, यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासहेतु उत्तरी भारत का निर्ग्रन्थ-संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था। सामान्यतया मुनि लग गया था। मथुरा में ईसवीं सन् प्रथम शताब्दी के आसपास नग्न ही रहते थे, और साध्वियाँ साड़ी पहनती थीं। मुनि वस्त्र का की जैन-श्रमणों की जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें सभी में उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जानिवारण हेतु करते थे। श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वे सामान्यतया मनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किए रहने की परम्परा नहीं थी। नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय वे इसी प्रकार इन अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, वस्त्रखंड हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप अति शीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे। मुख पर बँधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थ भी यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मनि के जिन हुए थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे संभवतः ईसा की दूसरीगृही-पात्र का उपयोग कर लेते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इसका तीसरी शती तक निश्चित हो गए थे। त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गए अर्थात् हाथ में ही भिक्षा महावीर के पश्चात निर्यन्थसंघ में हुए संघ-भेद : ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से संभवतः सर्व प्रथम निर्ग्रन्थ-संघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग महावार कानवाण आर मथुरा क अकन क किया गया होगा, किन्तु भिक्षुकों की बढ़ती हुई संख्या और एक पाँच सौ वर्षों के इतिहास में हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के हैं, वे निह्नवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो विभिन्न, गणों, शाखाओं, कुलों एवं संभागों के विभक्त होने से गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की सम्बन्धित हैं। आवश्यकनियुक्ति सात निह्नवों का उल्लेख करती परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की है, इनमें से जामालि और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय हुए थे, परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम-द्वितीय शेष पाँच आषाढ़भूति, अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है. जो अपने हाथ में महावीर निर्वाण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। एक पात्र-युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्रों पर निर्ग्रन्थ-संघ की परम्परागत हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वेताम्बर-परम्परा में, विशेष मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु इनके द्वारा निर्ग्रन्थ-संघ रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी-परम्परा में प्रचलित झोली में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, ऐसी कोई भी सूचना के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी उपलब्ध नहीं होती है। इस काल में निर्ग्रन्थ-संघ में गण और प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं शाखा-भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी साध्वियों के हाथ में मुख-वस्त्रिका (मुँह-पत्ति) और प्रतिलेखन मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में (रजोहरण) के भी अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को दिगम्बर-परम्परा में प्रचलित मयूरपिच्छि और श्वेताम्बरपरम्परा लेकर ही ये गण या शाखा भेद हए होंगे। यद्यपि कल्पसत्र में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि स्थविरावलि में षडलक रोहगप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्पष्ट साक्ष्य के अभाव में यह कहना का उल्लेख हुआ है। रोहगप्त त्रैराशिक मत के प्रवक्ता एक कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छ के बने होते थे या अन्य निव माने गए हैं। अत: यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं किसी वस्तु के। दिगम्बर-परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में कछ मान्यता-भेद भी रहे होंगे, किन्त आज हमारे पास यह और भगवतीआराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) का और जानने का कोई साधन नहीं है। उसके गुणों का तो वर्णन है, किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के कल्पसूत्र की स्थविरावलि तुंगीयायन गोत्री आर्य यशोभद्र पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ-संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका न के दो शिष्यों माढरगोत्री सम्भूतिविजय ओ र प्राचीनगोत्री भद्रबाहु anoramirarawdrowdriworipodrotoniudoodwordbord6M ५ Handirirandiriranirdridoraririramidnidaniraniraniane Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. का उल्लेख करती है। कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, वे एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यपगोत्री गौदास से एवं दूसरी ओर स्थूलिभद्र के शिष्यप्रशिष्यों से प्रारम्भ होती हैं। गोदास से गोदासगण की उत्पत्ति हुई। और उसकी चार शाखाएँ ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकर्पाटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाहु की परम्परा कैसे आगे बढ़ी इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की स्थविरावलि में कोई निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। दक्षिण में गोदासगण का एक अभिलेख भी मिला है। अतः यह मान्यता समुचित ही है। कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की अचेलक निर्ग्रन्थ-परंपरा का विकास हुआ। श्वेताम्बरपरम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के नेपाल में होने का उल्लेख करती है, जबकि दिगम्बरपरम्परा चंद्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव है कि वे अपने जीवन के अंतिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिस्य एवं स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। कल्पसूत्र में वर्णित गोदासगण और उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणों, कुलों और शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी प्रकार दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ । इस संघ में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, वेसवाडिवगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक शाखाएँ एवं कुल थे। कल्पसूत्र की स्थविरावलि इन सबका उल्लेख तो करती है, किन्तु इसके अन्तिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्र शाखा की आचार्य परम्परा दी गई है, जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण सं. ९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्यप्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें कल्पसूत्र की स्थविरावलि से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है, जो कल्पसूत्र की स्थविरावलि की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हैं। दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् तक की जो पट्टावली ले ६ उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है। दूसरे भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है । भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य है, वह पर्याप्त परवर्ती है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाए जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण में ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा के शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प की विशेषता यह है कि तीर्थंकर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी वस्त्र खण्ड से अपनी नग्नता छिपाए हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित है। मुनियों के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की स्थविरावलि से मिलते हैं। इस तरह ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति के सूचक हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की परंपरा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव : For Private ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छह सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ-संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया। पार्श्वापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपाधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र - पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद - मार्ग है, उत्सर्ग-मार्ग तो अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल - परम्परा को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई । गोपाञ्चाल में विकसित होने के कारण यह गोप्यसंघ नाम से भी जानी जाती थी । Personal Use Only Safran Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासषड्दर्शनसमुच्चय की टीका ने गुणरत्न ने गोप्यसंघ या यापनीय (२) मूलसंघ, (३) यापनीयसंघ, (४) कूचर्क संघ और (५) संघ को पर्यायवाची बताया गया है। यापनीय संघ की विशेषता श्वेतपटमहाश्रमणसंघ। इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा के समान आचरांग, से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि अर्द्धमागधी आगम- मिलती है। इस युग का श्वेतपटमहाश्रमणसंघ अनेक कुलों एवं साहित्य को मान्य करता था, जो कि उसे उत्तराधिकार में ही . शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। मुक्ति को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र निर्यन्थ-परम्परा का साहित्य : सम्बन्धी उल्लेखों को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता था। किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर- महावीर के निर्वाण के पश्चात से लेकर ईसा की पाँचवीं परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का निषेध कर मुनि की नग्नता शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते थे और पानीतलभोजी आगम-साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इसके आचार्यों ने उत्तराधिकार आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना में प्राप्त आगमों से गाथाएँ लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रन्थ हैं और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक आगम में बनाए। इनमें कषाय प्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं। ई. पू. तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, संभवतः दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थपरम्परा का इतिहास ईसवी इस घाचना में अंगसूत्रों एवं पार्थापत्य-परम्परा के पूर्व साहित्यसन् की तीसरी चौथी शती तक अंधकार में ही है। इस संबंध में । ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्र इसलिए महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पापित्य-परंपरा लुप्त होने हमें न तो विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा ही। यद्यपि इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मीलिपि के अनेक गुफा-अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते है किन्तु वे श्रमणों या में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभीपुर में समानान्तर निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते । तमिलनाडु वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात् वीरनिर्वाण ९८० अर्थात् ई.स. की पाँचवीं शती में में अभिलेखयुक्त जो गुफाएँ हैं, वे संभवतः निर्ग्रन्थों के वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। समाधिमरण ग्रहण करने का स्थल रही होंगी। संगमयुग के तमिलसाहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन-श्रमणों ने वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम हैं। फिर भी देवर्द्धि इन भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों था। तिरुकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है। को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ आचारांग एवं सूत्रकृतांग के ईसा की चौथी शताब्दी में में तमिल देश का यह निर्ग्रन्थसंघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थसंघ प्रथम श्रुतस्कंध, ऋषिभाषित उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि प्राचीन स्तर के अर्थात ई.पू. के ग्रन्थ हैं, वहीं समवायांग, वर्तमान सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण गया। सचेल श्वेताम्बर-परम्परा राजस्थान, प्रश्रव्याकरण आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई.स. की गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची, तो पाँचवीं शती के हैं। स्थानांग, अंतकृतदशा, ज्ञाता और भगवती अचेल यापनीय-परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई.पू. का) है, तो कुछ पर्याप्त और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप से सूर्यप्रज्ञप्ति, कर्णाटक पहुँची। ईसा की पाँचवीं शती में उत्तरी कर्णाटक में राजप्रश्रीय, प्रज्ञापना प्राचीन हैं। उपांगों की अपेक्षा भी छेदसूत्रों मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं, उनसे उस काल में जैनों के की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है--(१) निर्ग्रन्थसंघ, अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी indiatriaritadvidiodivoriwarriorivariorodroid Minisandinidiansansamirstboardroidaidoard Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्राचीन हैं। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम-साहित्य को इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वर सूरि जिनचन्द्र अन्तिम रूप लगभग ई. सन् की छठी शती के पूर्वार्द्ध में मिला सूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की । ईसवी सन् यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। की दशवीं शताब्दी में खरतरगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के के विरोध में हुआ था, जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहितमार्ग या मध्य तक मुख्य आगमिक व्याख्यासाहित्य के रूप में नियुक्ति, संविग्नपक्ष था। दिगम्बर-परम्परा में इस युग में द्रविड संघ, भाष्य, चूर्णि और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त जिन्हे दर्शन-सार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया। स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गए। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में इस संबंध में पं. नाथूरामजी प्रेमी ने अपने ग्रन्थ 'जैन सिद्धसेन, जिनभद्रगणा, शिवाय, बट्टकर, कुन्दकुन्द, अकलक, साहित्य और इतिहास' में 'चैत्यवास और वनवास' के शीर्षक समन्तभद्र, विद्यानंद, जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, के अन्तर्गत विस्तृत चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के अना अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध आधार पर यह कहना कठिन ही है कि इन विरोधों के बावजूद टीकाओं और पुराणों का रचनाकाल भी यही युग है। भी जैन-संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका है। चैत्यवास और भट्टारक-परंपरा का उदय : तन्य और भक्तिमार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव : दिगम्बर-परम्परा में भट्टारक संप्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा वस्तुतः गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में चैत्यवास का विकास भी इसी युग अर्थात् ईसा की पाँचवीं तक का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के हास और शती से होता है, यद्यपि जिन-मंदिर और जिन-प्रतिमा के निर्माण ललित कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में कामुक अंकन किए गए। लगते हैं। शक और कुषाण-युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, कास हुआ, जिन-मंदिर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यही वह युग फिर भी ईसा की ५ वीं शती से १२ वीं शती के बीच जैनशिल्प _है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की कथा को गढ़कर अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है। यह वस्तुतः चैत्यवास की धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी काल में देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि वनवास को छोड़कर तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हआ। जिसकी अग्नि में बौद्ध और वा चैत्यों जिनमंदिरों में रहने लगे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इन भिक्षसंघ तो परी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षुसंघ भी उसकी चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेख से तो यहाँ तक लपटों की झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैनधर्म पर सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, भी तन्त्र का प्रभाव आया। हिन्दू-परम्परा के अनेक देवी-देवताओं अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिए भी सम्भ्रान्त को प्रकारांतर से यक्ष, यक्षिणी अथवा शासन-देवियों के रूप में वर्ग से दान प्राप्त किए जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन जैन देव-मण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया। उनकी साधु मठाधीश बन गया था। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए अनेक द्वारा जैन-दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में । तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थंकर तो वीतराग था, अतः हुआ, उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। __ वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, यद्यपि चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार __फलतः दोनों ने यक्ष-यणियों या शासन-देवता को भक्तों के विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-विद्या के साथ परम्पराओं में हुआ। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र समायोजित कर लिया। इसी प्रकार भक्ति-मार्ग का प्रभाव भी ने इसके विरोध में लेखनी चलाई। सम्बोधन प्रकरण में उन्होंने इस युग में जैनसंघ पर पड़ा। तन्त्र और भक्तिमार्ग के संयक्त इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर आलोचना प्रभाव से जिनमंदिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार की, यहाँ तक कि उन्हें नरपिशाच तक कह दिया। चैत्यवास की Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासके कर्मकाण्ड अस्तित्व में आए। वीतराग जिनप्रतिमा की चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आए। इस युग में हिन्दूपरम्परा की षोडशोपचार-पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की भट्टारकों और जैन-यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मंदिरों का जाने लगी। न केवल वीतराग जिन प्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से निर्माण तो किया ही किन्तु चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के सुसज्जित किया गया, अपितु उसे फल-नेवैद्य आदि भी अर्पित क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। किए जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं सुधारवादी आन्दोलन एवं अमूर्तिक सम्प्रदायों की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा तीर्थंकर या । सिद्ध परमात्मा का आह्वान और विसर्जन भी किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बरपरम्परा में अधिक आया था, किन्तु . जैनपरम्परा में एक परिवर्तन की लहर पुन: सोलहवीं दिगम्बर-परम्परा भी इससे बच न सकी। शताब्दी में आई। जब अध्यात्मप्रधान जैनधर्म का शुद्ध कर्म - विविध प्रकार के कमकाण्ड और तन्त्र-मन्त्र का प्रवेश काण्ड धार सावकाश काण्ड घोर आडम्बर के आवरण से धूमिल हो रहा था और उसमें भी हो गया था। श्रमणपरंपरा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी f-मन सर्वोदयी मुस्लिम शासकों के मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्तिपूजा के प्रति धर्मव्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध आस्थाएँ विचलित हो रही थीं, तभी मुस्लिमों की आडम्बर और शूद्र जलत्याग पर बल दिया गया। रहित सहज धर्म-साधना ने हिन्दुओं की भाँति जैनों को भी प्रभावित किया। हिन्दू-धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी संतों यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक के आविर्भाव के समान ही जैन-धर्म में भी ऐसे संतों का आविर्भाव समर्थ जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परंपरा हुआ, जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्म काण्ड और आडम्बरयुक्त में सहगामी अन्य धर्मपरम्पराओं से जो प्रभाव आ गए थे, उनसे पूजापद्धति का विरोध किया। फलतः जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं उसे मुक्त करने का कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, दिगम्बर दोनों ही शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों हुआ। इनमें श्वेताम्बर-परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर-परम्परा के आधार पर श्वेताम्बर-परम्परा तपागच्छ, अचलगच्छ आदि में संत तरणतारण तथा बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास अस्तित्व में आए और उनकी शाखा प्रशाखाएँ भी बनीं, फिर भी जन्मना श्वेताम्बर-परम्परा के थे, किन्तु उनका सुधारवादी आन्दोलन लगभग १५ वीं शती तक जैनसंघ इसी स्थिति का शिकार रहा। दिगंबर-परम्परा से सम्बन्धित था। लोकाशाह ने श्वेतांबर परम्परा मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और आडम्बरों का विरोध महत्त्वपूर्ण अवदान : किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर में यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुनः एक विभाजन सुविधावाद का युग था फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में १८ वीं शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल, व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर-तेरापंथ के रूप में हुआ। आबू (देलवाड़ा), तारंगा, राणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्यकला, जो ९ वीं शती से १४ वीं शती के दिगम्बर-परम्पराओं में बनारसीदास ने भट्टारक-परम्परा बीच में निर्मित हुई, आज भी जैन-समाज का मस्तक गौरव से माज भी जैन समाज का वो के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की क विरुद्ध अपना आवाज बुलद क ओर सचित्त द्रव्यों से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों सिकायों जिनप्रतिमा के पूजन का निषेध किया, किन्तु तारणस्वामी तो की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुईं। श्वेताम्बर-परम्परा में बनारसीदास से भी एक कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर-परम्परा बनारसाद हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन, में मूर्ति-पूजा का ही निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, उन्होंने म जिनप्रभ तथा दिगम्बरपरम्परा में विद्यानंदी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के हैं। मंत्र-तंत्र के साथ । की परम्परा जहाँ दिगम्बर-तेरापंथ के नाम से विकसित हई तो तारण-स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम iridromedianhviandvantibodieberroristination Horonavordinatoridriomarawdiriomdomindianbidasiation Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाससे पहचाना जाने लगा। तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के अध्यात्मनिष्ठा आज इसकी एक अलग पहचान बनाती है। इसी स्थान पर शास्त्र की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं एवं प्रकार श्वेताम्बर स्थानकवासी-परम्परा में दीक्षित कानजी स्वामी सत्रहवीं शताब्दी में जैन-परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के ने महान् अध्यात्मवादी दिगम्बर-संत कुन्दकुन्द के समयसार फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों जैसे अध्यात्म और निश्चय नये प्रधानग्रन्थ के अध्ययन से दिगम्बरका जन्म हुआ फिर भी पुरानी परम्पराएँ यथावत् चलती रहीं। परम्परा में इस शताब्दी में एक नये आन्दोलन को जन्म दिया। पुनः बीसवीं शती में गांधीजी के गुरुतुल्य श्रीमदराजचन्द्र के इस प्रकार जैन-धर्म में भी युग-युग में देश और काल के कारण अध्यात्म-प्रेमियों का एक नया संघ बना। यद्यपि सदस्य प्रभाव से अनेक परिवर्तन होते रहे हैं, जिनकी संक्षिप्त झाँकी संख्या की दृष्टि से चाहे यह संघ प्रभावशाली न हो किन्तु उनकी इस आलेख में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है।