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-यतीन्द्रसरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासके कर्मकाण्ड अस्तित्व में आए। वीतराग जिनप्रतिमा की चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आए। इस युग में हिन्दूपरम्परा की षोडशोपचार-पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की भट्टारकों और जैन-यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मंदिरों का जाने लगी। न केवल वीतराग जिन प्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से निर्माण तो किया ही किन्तु चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के सुसज्जित किया गया, अपितु उसे फल-नेवैद्य आदि भी अर्पित क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। किए जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं
सुधारवादी आन्दोलन एवं अमूर्तिक सम्प्रदायों की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा तीर्थंकर या । सिद्ध परमात्मा का आह्वान और विसर्जन भी किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बरपरम्परा में अधिक आया था, किन्तु . जैनपरम्परा में एक परिवर्तन की लहर पुन: सोलहवीं दिगम्बर-परम्परा भी इससे बच न सकी।
शताब्दी में आई। जब अध्यात्मप्रधान जैनधर्म का शुद्ध कर्म - विविध प्रकार के कमकाण्ड और तन्त्र-मन्त्र का प्रवेश काण्ड धार
सावकाश काण्ड घोर आडम्बर के आवरण से धूमिल हो रहा था और उसमें भी हो गया था। श्रमणपरंपरा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी
f-मन सर्वोदयी मुस्लिम शासकों के मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्तिपूजा के प्रति धर्मव्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध
आस्थाएँ विचलित हो रही थीं, तभी मुस्लिमों की आडम्बर और शूद्र जलत्याग पर बल दिया गया।
रहित सहज धर्म-साधना ने हिन्दुओं की भाँति जैनों को भी
प्रभावित किया। हिन्दू-धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी संतों यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक
के आविर्भाव के समान ही जैन-धर्म में भी ऐसे संतों का आविर्भाव समर्थ जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परंपरा
हुआ, जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्म काण्ड और आडम्बरयुक्त में सहगामी अन्य धर्मपरम्पराओं से जो प्रभाव आ गए थे, उनसे
पूजापद्धति का विरोध किया। फलतः जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं उसे मुक्त करने का कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो,
दिगम्बर दोनों ही शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों
हुआ। इनमें श्वेताम्बर-परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर-परम्परा के आधार पर श्वेताम्बर-परम्परा तपागच्छ, अचलगच्छ आदि
में संत तरणतारण तथा बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास अस्तित्व में आए और उनकी शाखा प्रशाखाएँ भी बनीं, फिर भी
जन्मना श्वेताम्बर-परम्परा के थे, किन्तु उनका सुधारवादी आन्दोलन लगभग १५ वीं शती तक जैनसंघ इसी स्थिति का शिकार रहा।
दिगंबर-परम्परा से सम्बन्धित था। लोकाशाह ने श्वेतांबर परम्परा मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और आडम्बरों का विरोध महत्त्वपूर्ण अवदान :
किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध
हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर में यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं
स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुनः एक विभाजन सुविधावाद का युग था फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में
१८ वीं शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल,
व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर-तेरापंथ के रूप में हुआ। आबू (देलवाड़ा), तारंगा, राणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्यकला, जो ९ वीं शती से १४ वीं शती के
दिगम्बर-परम्पराओं में बनारसीदास ने भट्टारक-परम्परा बीच में निर्मित हुई, आज भी जैन-समाज का मस्तक गौरव से माज भी जैन समाज का वो के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की
क विरुद्ध अपना आवाज बुलद क
ओर सचित्त द्रव्यों से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों
सिकायों जिनप्रतिमा के पूजन का निषेध किया, किन्तु तारणस्वामी तो की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुईं। श्वेताम्बर-परम्परा में
बनारसीदास से भी एक कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर-परम्परा
बनारसाद हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन,
में मूर्ति-पूजा का ही निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, उन्होंने
म जिनप्रभ तथा दिगम्बरपरम्परा में विद्यानंदी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र
धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के हैं। मंत्र-तंत्र के साथ ।
की परम्परा जहाँ दिगम्बर-तेरापंथ के नाम से विकसित हई तो
तारण-स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम iridromedianhviandvantibodieberroristination Horonavordinatoridriomarawdiriomdomindianbidasiation
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