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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासषड्दर्शनसमुच्चय की टीका ने गुणरत्न ने गोप्यसंघ या यापनीय (२) मूलसंघ, (३) यापनीयसंघ, (४) कूचर्क संघ और (५) संघ को पर्यायवाची बताया गया है। यापनीय संघ की विशेषता श्वेतपटमहाश्रमणसंघ। इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा के समान आचरांग, से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि अर्द्धमागधी आगम- मिलती है। इस युग का श्वेतपटमहाश्रमणसंघ अनेक कुलों एवं साहित्य को मान्य करता था, जो कि उसे उत्तराधिकार में ही . शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। मुक्ति को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र
निर्यन्थ-परम्परा का साहित्य : सम्बन्धी उल्लेखों को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता था। किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर- महावीर के निर्वाण के पश्चात से लेकर ईसा की पाँचवीं परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का निषेध कर मुनि की नग्नता शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते थे और पानीतलभोजी आगम-साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इसके आचार्यों ने उत्तराधिकार आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना में प्राप्त आगमों से गाथाएँ लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रन्थ हैं और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक आगम में बनाए। इनमें कषाय प्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं।
ई. पू. तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, संभवतः दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थपरम्परा का इतिहास ईसवी
इस घाचना में अंगसूत्रों एवं पार्थापत्य-परम्परा के पूर्व साहित्यसन् की तीसरी चौथी शती तक अंधकार में ही है। इस संबंध में ।
ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्र
इसलिए महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पापित्य-परंपरा लुप्त होने हमें न तो विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय
लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा ही। यद्यपि इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मीलिपि के अनेक गुफा-अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते है किन्तु वे श्रमणों या
में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभीपुर में समानान्तर निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते । तमिलनाडु
वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए।
इसके पश्चात् वीरनिर्वाण ९८० अर्थात् ई.स. की पाँचवीं शती में में अभिलेखयुक्त जो गुफाएँ हैं, वे संभवतः निर्ग्रन्थों के
वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। समाधिमरण ग्रहण करने का स्थल रही होंगी। संगमयुग के तमिलसाहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन-श्रमणों ने
वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम हैं। फिर भी देवर्द्धि इन भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया
आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों था। तिरुकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है।
को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले
की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ आचारांग एवं सूत्रकृतांग के ईसा की चौथी शताब्दी में में तमिल देश का यह निर्ग्रन्थसंघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थसंघ
प्रथम श्रुतस्कंध, ऋषिभाषित उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि
प्राचीन स्तर के अर्थात ई.पू. के ग्रन्थ हैं, वहीं समवायांग, वर्तमान सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण गया। सचेल श्वेताम्बर-परम्परा राजस्थान,
प्रश्रव्याकरण आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई.स. की गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची, तो
पाँचवीं शती के हैं। स्थानांग, अंतकृतदशा, ज्ञाता और भगवती अचेल यापनीय-परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य
का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई.पू. का) है, तो कुछ पर्याप्त और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी
परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप से सूर्यप्रज्ञप्ति, कर्णाटक पहुँची। ईसा की पाँचवीं शती में उत्तरी कर्णाटक में
राजप्रश्रीय, प्रज्ञापना प्राचीन हैं। उपांगों की अपेक्षा भी छेदसूत्रों मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं, उनसे उस काल में जैनों के
की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है--(१) निर्ग्रन्थसंघ,
अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी indiatriaritadvidiodivoriwarriorivariorodroid
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