Book Title: Jain Dharm ke  Prabhavak Acharya
Author(s): Sanghmitrashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ प्रस्तावना जैन-शासन सामुदायिक साधना की दृष्टि मे अपूर्व है । भारतीय साधना की 'परपरा मे उसकी परपरा को चिरजीवी परपरा कहा जा सकता है । यद्यपि व्यक्तिगत साधना की व्यवस्था भी सुरक्षित है, फिर भी सामुदायिक साधना की पद्धति ही मुख्य रही है। उस समूची पद्धति का प्रतिनिधित्व करने वाले दो शब्द हैगण और गणी। भगवान् महावीर के अस्तित्व-काल में नौ गण और ग्यारह गणधर थे। यह विभाग केवल व्यवस्था की दृष्टि से था। उत्तरवर्ती काल में गण अनेक हो गए। उनमे मौलिक एकता भी नही रही। मम्प्रदाय भेद बढते गए। बडे गण छोटे गणो मे विभक्त होते गए। फिर भी गण की परपरा को सुरक्षित रखने का प्रयत्न निरतर चलता रहा। फलत आज भी जैन शासन परपरा के रूप मे सुरक्षित हैं । गणो के आपसी भेद चलते थे । वौद्ध और वैदिक विद्वानो के आघात भी चलते थे। इस परिस्थिति में प्रभावक आचार्य ही जैन-शासन के अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते थे। इम पचीस सौ वर्ष की लवी अवधि में अनेक प्रभावक आचार्य हुए है । उन्होने अपनी श्रुत-शक्ति, चारित्र-शक्ति तथा मन्त्र-शक्ति के द्वारा अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा की और जैन-शासन की भी प्रभावना वढाई । हजारो वर्षों की लवी अवधि मे अनेक गणो के अनेक प्रभावी आचार्य हुए । उन सवका आकलन करना एक दुर्गम कार्य है। साध्वी सघमित्रा ने उम दुर्गम कार्य को सुगम करने का प्रयत्न किया है। आचार्य-परपरा को जानने के मुख्य स्रोत हैं—स्थविरावलिया, पट्टावलिया, प्रभावक-चरित, प्रवधकोश आदि-आदि ग्रन्थ । आगम के व्याख्या ग्रथो-नियुक्ति, भाष्य, चूणियो, और टीकाओ मे यत्र-तत्र कुछ सामग्री उपलब्ध होती है । साध्वी -सघमिना ने श्वेताम्बर और दिगवर परपरा के उपलब्ध उन सभी स्रोतो का इस प्रस्तुत कृति मे उपयोग किया है। प्रस्तुत ग्रथ मे सभी परपरा के आचार्यों का जीवन-वृत्त वणित है। उनके आधारभूत प्रामाणिक स्रोत भी सन्दर्भ रूप मे सकलित है । लेखिका ने बडी लगन और परिश्रम के साथ प्रस्तुत ग्रथ की रचना की है। श्रम और सूझ-बूझ के साथ लिखा गया यह ग्रन्थ पाठको के लिए रुचिवर्धक, ज्ञानवर्धक और शक्तिवर्धक

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