Book Title: Jain Dharm aur uske Siddhant
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 2
________________ जैनधर्म और उसके मिद्धांत ४१ का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है-भीतरी (काम, क्रोध, मोह आदि) और बाहरी (कौपीन, वस्त्रादि) परिग्रह से रहित श्रमण साधु । इण्डो-ग्रीक और इण्डो-सीथियन के समय में यह धर्म "श्रमण-धर्म के नाम में प्रचलित था। मेगस्थनीज ने मुख्य रूप से ब्राह्मण और श्रमण दार्शनिकों का उल्लेख किया है। पिछले दो दर्शकों में जैनधर्म की प्राचीनता के सम्बन्ध में कई प्रमाण उपलब्ध हुए हैं जिनसे पता चलता है कि वेदों के युग में और उसके पूर्व जैनधर्म इस देश में प्रचलित था । वैदिक काल में यह 'आहत' धर्म के नाम से प्रसिद्ध था। आहत लोग "अहंत" के उपासक थे। वे वेद और ब्राह्मणों को नहीं मानते थे। वेद और ब्राह्मणों को मानने वाले तथा यज्ञ-कर्म करने वाले “बाहत" कहे जाते थे। बाहत "बृहती" के भक्त थे। बृहती वेद को कहते थे। वैदिक यजन-कर्म को ही वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। वेदों में कई स्थानों पर आर्हत और बार्हत लोगों का उल्लेख हुआ है तथा “अर्हन" को विश्व की रक्षा करने वाला एवं श्रेष्ठ कहा गया है। शतपथब्राह्मण में अर्हन का आह्वन किया गया है और कई स्थानों पर उन्हें श्रेष्ठ कहा गया है ५ । यद्यपि ऋषभ और वृषभ शब्दों का वैदिक साहित्य में कई स्थानों पर उल्लेख हुआ है पर ब्राह्मण साहित्य में वे भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं उनका अर्थ बैल या सांड है तो कहीं मेघ और अग्नि तथा कहीं विश्वामित्र के पुत्र और कहीं बलदायक एवं कहीं श्विक्नों के राजा भी है। अधिकतर स्थलों में "वृषभ" को कामनापूरक एवं कामनाओं की वर्षा करने वाला कहा गया है । सायण के अनुसार “वृषभ" का अर्थ कामनाओं की वर्षा करने वाला तथा ग्रहन्' का अर्थ योग्य है। किन्तु ऋग्वेद में दो स्थलों पर स्पष्ट रूप से “वषभ" परमात्मा के रूप में वर्णित हैं। ऋग्वेद में वृषभ को कहीं-कहीं रुद्र के तुल्य और कहीं-कहीं अग्नि के सन्दर्भ में वर्णित किया गया है। इसी प्रकार "अरिष्टनेमि" का अर्थ हानि रहित नेमि वाला, त्रिपुरवासी असुर, पुरुजित्सुत और श्रौतों का पिता कहा गया है। किन्तु शतपथब्राह्मण में अरिष्ट का अर्थ अहिंसक है और "अरिष्टनेमि" का अर्थ अहिंसा की धुरी अर्थात् अहिंसा के प्रवर्तक है । अर्हन्, वृषभ और ऋषभ को वैदिक साहित्य में प्रशस्त कहा गया है । वृष को धर्मरूप ही माना गया है । जैनागमों में ऋषभदेव धर्म के आदि प्रवर्तक कहे गये हैं । अन्य देशविदेशों की मान्यताओं एवं उनकी आचार विचार पद्धति से इस की पुष्टि होती है । कहीं यह वृषभ “धर्मवज" के रूप में, कहीं कृषिदेवता के रूप में और कहीं "वृषभध्वज' के रूप में पूजे जाते हैं। कहीं यह आदिनाथ है तो कही आदि धर्मप्रवर्तक और कहीं परमपुरुष के रूप में वर्णित हैं। बृहस्पति की भांति अरिष्टनेमि की भी संस्तुति की गई है । ३ ४ ५ एन्शियेन्ट इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाइ मेगस्थनीज एण्ड अर्रयन, प०६७-६८ । ऋग्वेद २।३३।१०, २।३।१,३, ७।१८।२२, १०।२।२,६६.७ । तथा-१०१८५४, ऐग्रा०५।२।२, शां ११४, १८१२,२३।१, ऐ० ४।१० ३।४।१।३-६, ते० २१८।६।६, तैपा० ४१५१७, ५।४।१० प्रादि । ___ ऋग्वेद ४।५८।३, ४।५।१, १०।१६६।१ ।। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा : स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । म्वस्ति नस्तायो अरिष्टनेमि स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु । -ऋग्वेद १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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