Book Title: Jain Dharm aur uske Siddhant
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 5
________________ डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री श्रमण " कहने लगे । २१ परन्तु जैन परम्परा में "श्रमरण" शब्द अपने मूल रूप में आज तक सुरक्षित है । २३ वस्तुतः ब्राह्मण साहित्य के अध्ययन से यह निश्चित हो जाता है कि भ्रमणों की अपनी परम्परा रही है जो पुराणकाल तक और तब से अब तक अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित है। श्री मद्भागवत में मेरुदेवी ( मरुदेवी ) तथा नाभि राजा के पुत्र भगवान् ऋषभदेव वातरशन श्रमरणों के धर्मप्रवर्तक कहे गये हैं । २३ और उन्हें "योगेश्वर" कहा गया है । २४ इसी प्रकार अन्य पुराणों में भी ग्रार्हत धर्म का उल्लेख मिलता है जिसे कहींकहीं जैनधर्म कहा गया है। पदमपुराण, विष्णु पुराण, स्कन्द और शिव पुराणों से प्रार्हत परम्परा की पुष्टि होती है । इन पुराणों में जैनधर्म की उत्पत्ति तथा विकास के संबंध में कई आख्यान भी मिलते हैं । मत्स्यपुराण ' में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि जिनधर्म वेदबाह्य है जो वेदों को नहीं मानता २५ । इससे यह तो पता लग ही जाता है कि जिस युग में वेदों की सृष्टि हुई थी उस समय ग्रार्हत लोग वेद विरोधी थे और तभी से वेदविरोधी धर्म के रूप में उनका स्मरण एवं उल्लेख किया जाता रहा, क्योंकि किसी वैचारिक क्रान्ति के सन्दर्भ में ही अपने आप को पुराना मानने वाले इस प्रकार का नाम देने ये हैं । किन्तु इससे जैनधर्म की प्राचीनता पर और भी प्रकाश पड़ता है । संक्षेप में तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के समय तक यह आहेत धर्म के नाम से ही प्रचलित था । बौद्धग्रन्थों तथा अशोक के शिलालेखों में यह "निग्गंठ" के नाम से प्रसिद्ध रहा और इण्डो-ग्रीक तथा इन्डो-सीथियन के युग में "श्रमण " धर्म के नाम से देश-विदेशों में प्रचारित रहा । पुराण-काल में यह जिन या जैनधर्म के नाम से विख्यात हुआ और तब से यह इसी नाम से सुप्रसिद्ध है । जैनागम तथा शास्त्रों में इस के जिनशासन, जैनतीर्थ, स्थाद्वादी, स्याद्वादवादी, अनेकान्तवादी, आर्हत और जैन आदि नाम मिलते हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों में समय-समय पर यह भिन्न नामों से प्रचलित रहा है । जिस समय दक्षिण में भक्ति आन्दोलन जोर पकड़ रहा था, उस समय वहां पर यह भव्यधर्म के नाम से प्रसिद्ध था। पंजाब में यह "भावादास" के नाम से प्रचलित रहा।२६ तथा “सरावग-धर्म" के नाम से ग्राज भी राजस्थान में प्रचलित है। गुजरात में और दक्षिण में यह अलग अलग नामों से प्रचलित रहा है। और इस प्रकार आहेत, वातवसन या वातरशन श्रमण से लेकर जिनधर्म और जैनधर्म तक की एक बृहत् तथा अत्यन्त प्राचीन परम्परा प्राप्त होती है । ४४ २१ सम्बुद्धः करुणाकूर्चः सर्वदर्शी महाबलः । विश्वबोधो धर्मकायः संगुप्तां र्हन्सुनिश्चितः । । व्यामाभो द्वादशाख्यश्च वीतरागः सुभाषितः । सर्वार्थसिद्धस्तु २२ २३ मुमुक्षुः श्रमणो यतिः । - प्रभिधानचिन्तामणि, १,७५ । " नामः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनाना श्रमणानांमृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार ।" - श्री मद्भागवत, ५।३।२० २४ "भगवान्ऋषभदेवो योगेश्वरः प्रहस्यात्मयोगमायया स्ववर्षमजनामं नामाभ्यवर्षत् ।" वही, ५१४३ महाश्रमणः कलिशासनः । त्रिकाण्डशेष, १,१०-११ २५ गत्वा थ मोहयामास रजिपुत्रान् वृहस्पतिः । जिनधर्म समास्थाय वेदबाह्यं सवेदवित् । मत्स्यपुराण, २४१४७ २६ डा० ज्योति प्रसाद जैन: जैनिज्म द प्रोल्डेस्ट लिविंग रिलीजन, पृ० ६२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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