Book Title: Jain Dharm aur uske Siddhant Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 1
________________ जैनधर्म और उसके सिद्धान्त भारतवर्ष की प्राचीनतम संस्कृतियों में श्रमण संस्कृति का अत्यन्त महत्वपूर्ण योग रहा है। विभिन्न देश और कालों में यह विशिष्ट नामों से व्यवहृत रही है। यद्यपि इतिहास के विद्वान् तथा मनीगी इसकी प्राचीनता लगभग तीन सहस्र वर्ष ही स्वीकार करते हैं किन्तु वैदिक साहित्य, जैन आगम साहित्य तथा अन्य देशों के साहित्य एवं परम्परा से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक युग के पूर्व पार्हत संस्कृति का प्रसार भलीभांति इस देश में व्याप्त था। वेदों में हमें जिस यज्ञपरायण संस्कृति के दर्शन होते हैं वह वेद और ब्रह्म को सर्वश्रेष्ठ घोषित करती है और ब्रह्म की प्राप्ति के लिए यजन-कर्म को परम पुरुषार्थ निरूपित करती है। परन्तु इस मान्यता का वेद-काल में और उसके बाद भी घोर विरोध हुआ। वैदिक काल के पहले से ही ब्राह्मण संस्कृति तथा सृष्टिकर्तत्व विरोधी व्रात्य तथा साध्य श्रेणी के लोग पाहत संस्कृति के प्रसारक थे। ये ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानते थे। इनका विश्वास था कि सृष्टि प्रकृति के नियमों से बनी है। प्रकृति के नियमों को भली भांति ज्ञात कर मनुष्य भी नये संसार की रचना कर सकता है। मनुष्य की शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। वह समस्त शक्तियों में श्रेष्ठ है। कहा जाता है कि साध्यों ने सरस्वती और सिन्धु के संगम पर विज्ञान भवन स्थापित कर सूर्य का निर्माण किया था । उस विज्ञान भवन में बैठ कर समस्त ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार किया था । आहत लोग कर्म में विश्वास रखते थे। और यही उनके सृष्टिकर्ता ईश्वर को न मानने का मूल कारण था । पाहत लोग मुख्य रूप से क्षत्रिय थे। राजनीति की भांति वे धार्मिक प्रवृत्तियों में विशेष रुचि रखते थे और समय पड़ने पर वे वाद-विवादों में भी भाग लेते थे। प्रार्हत् "अर्हत्" के उपासक थे। उनके देवस्थान पृथक् थे और पूजा अवैदिक थी। इम आहेत परम्परा की पुष्टि "श्रीमद्भागवत", पद्मपुराण, विष्णुपुराण, स्कन्दपुराण और शिवपुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों से होती है । इसमें जैनधर्म की उत्पत्ति के संबंध में भी अनेक आख्यान उपलब्ध होते हैं २ । यथार्थ में आर्हत धर्म जिस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है वही वेदों, उपनिषदों, तथा पुराण-साहित्य में यत्किचित् परिवर्तन के साथ सष्ट रूप से झिलमिलाती हुई लक्षित होती है। निश्चय ही तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय तक जैनधर्म के लिए "पाहत" शब्द ही प्रचलित था । बौद्ध पालि ग्रन्त्रों में तथा अशोक के शिलालेखों में "निम्गंठ" शब्द का प्रयोग मिलता है। निग्गंठ या निर्ग्रन्थ शब्द जैनों १ २ देखिए, देवदत्त शास्त्री द्वारा लिखित-चिन्तन के नये चरण, पृ० ६८ । श्री मद्भागवत ५।३।२०, पद्मपुराण १३।३५०, विरगुपुराण ३१७-१८ अ०, स्कन्दपुराण३६-३७-३८ अ० और शिवपुराण ५।४-५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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