Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 12 Author(s): Lakshmichand Premchand Shah Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth View full book textPage 9
________________ માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા . ३४७ इसके विपरीत जिसका रात्रि दिवस अधर्म प्रवृत्ति में बीत जाता है उसका सारा जीवन बर्बाद ही समझना चाहिये । कारण जीवन का सार धर्म है। प्रथम तो अल्प काल का जीवन और द्वितीय अधर्म प्रवृत्ति फिर क्या आत्म हानि की कम संभावना है ? अरे ! ऐसे समय तो निश्चित ही आत्म पतन समझना चाहिये। कहा भी है किः जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स; अफला जंति राहो ॥ जा जा वच्चइ रमणी, न सा पडिनियत्तई ॥ धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राईओ॥ जीवन की सफलता और निष्फलता सूचित करनेवाली ये दो गाथाएं हैं, इन दोनों में जीवन के विकास, प्रकाश, अभ्युदय और अधःपतन के तत्व सन्निहित हैं। यदि द्वितीय गाथा को अपने जीवनमंत्र की उपमा दी जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। महावीर प्रभु का स्फुट सिद्धान्त सार इन दोनो गाथाओंमें ही है। संसार में जितने भी मजहब, संप्रदाय, पंथ और शास्त्र हैं उनके निर्माण का उद्देश्य केवल नीति, धर्म और कर्तव्य मार्गका ज्ञान कराने का ही है। जब तक अपने कर्तव्य को नहीं पहिचानते हैं तभी तक विरक्ति की अभिलाषा जागृत नहीं होती है और ज्योंही कर्तव्य भान हुआ त्योंही इन बंधनकारी बंधनो से मुक्त होने की तीवाभिलाषा ह्रदय में घर कर लेती है। बंधनों से विरक्ति भावों की उत्पति होना ही धर्मलाभ और जीवन साफल्य के संस्कारों से संस्कारित होना है। ___ जब हम अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर या अन्य किसी अभिप्राय विशेष से प्रेरणा प्राप्त कर समीपवर्ती ग्रामों में जाते हैं तो वहां भी मार्गव्यय और खाद्य सामग्री साथमें ले जाते हैं, जिससे भूख प्यास (क्षुधा पिपासा) का परीषह समय पर नहीं सहन करना पड़ता है। मार्गव्यय साथ इसी लिये लिया जाता है कि आगे पराधीन बनकर दूसरों के मुख की ओर न ताकना पडे। इसके विपरीत जिसके पास मार्गव्यय तथा खाद्य सामग्री आदि कुछ भी नहीं हैं और मुसाफिरी के लिये निकला है उसको भविष्यमें कितनी आपत्तियों एवं तिरस्कारों का सामना करना पड़ता है इसकी साक्षी स्वयं उसका दरिद्रतामय जीवन ही दे रहा है। उसे पद पद पर भूख प्यास सताती है, स्थान २ पर रुकना पडता है, द्वार २ पर हाथ पसारने पड़ते हैं और घर २ में भीख मांगनी पडती है। यदि वह पहिले से ही अपने साथमें मार्ग का सुप्रबंध कर लेता तो उसकी यह विचारणीय और दुःखद परिस्थिति कदापि नहीं होती। वास्ते जैसे किंचित् दूर जाने के लिये भी प्रबंध की अवश्य आवश्यकता रहती है उसी प्रकार मोक्षरूप विशाल ओर अत्यन्त दूरवर्ती स्थान पर पहुंचने के लिये भीPage Navigation
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