Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 12
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 8
________________ ३४३ જૈનધર્મ વિકાસ शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा (लेखक )-पूज्य मु, श्री. प्रमोदविजयजी म. ( पन्नालालजी) ( गतis. ४ ३१४ था मनुस धान ) प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ भी धर्म प्रवृत्ति की ही नसीहत देता है। नदियों, वृक्षो और बादलों और ही दृष्टि निपात कीजिये ये स्वयं धर्मार्थ ही अपना जीवन सर्वस्व अर्पण किये हुए रहते हैं । स्वार्थ के वशीभूत बन कर जी धर्म प्रवृत्ति की जाय वह इतनी श्रेयस्कारी नहीं हो सकती जितनी कि-परमार्थ वृत्ति होती है। कवियों ने भी कहा है कि: पिबंति नद्यः वयमेव नाम्भः, स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः, एकान्तधर्माय सतां विभूतयः॥ अर्थात नदियां स्वयं अपना पानी आप नहीं पीती हैं, वृक्ष स्वयं अपने फल आप नहीं खाते हैं, बादल स्वयं अनाज नहीं खाते हैं किंतु धर्म के लिये वे सब अपना जीवन अर्पण कर देते हैं, कारण परमार्थियों की विभूति धर्म के लिये ही होती है, वे धर्म निमित्त सर्वस्व अर्पण करने में ही जीवन की सफलता समझते है। .. शास्त्रकारों ने तो प्रमाद को त्याग कर आत्मकल्याण हेतु प्रवृत्ति करते रहने का स्थान २ पर उपदेश और आदेश दिया है। गौतमस्वामी को महावीर का जो खास संदेश था वह भी यही था कि-"समयं गोयम ! मा पमायए" एक क्षणभर भी धर्म प्रवृत्ति में प्रमाद न करो। कल के विश्वास पर या भविष्य के विचार पर न रहो, कारण भविष्य का निश्चय और विश्वास वही कर सकता है जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो। यदि मैत्री नहीं है तो उसका विश्वास भी नहीं करना चाहिये। कहा भी है किः जस्सस्थि मच्चुणा सक्ख, जस्स वऽत्थि पलायणं । जो जाणइ न मरिस्सामि, सो हु कखे सुए सिया।। अर्थात् भविष्य का आधार उसी को लेना चाहिये जिसका मृत्यु के साथ सख्यभाव हो, जो मृत्यु के पास आने पर उससे अपना पिण्ड छुड़ा कर भाग सकता हो अथवा जिसको यह दृढ विश्वास हो गया हो कि मैं अमुक समय के पूर्व कदापि न मर सकूँगा। देखो जब इक्षुकार राजा ने अपने दोनों पुत्रों को धर्म विचलित करने के लिये विविध प्रलोभनों का आलंबन ग्रहण किया तथापि उन पुत्रों ने अपने पिताको भी उपरोक्त साहस पूर्ण प्रत्युत्तर ही दिया और बतलाया कि-पिताजी ! जिस मनुष्य का रात्रि दिवस धर्म करते हुए व्यतीत होता रहता है उसका वह रातदिन सफल ही मामना चाहिये ।

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