Book Title: Jain Dharm Vikas Book 01 Ank 02
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 20
________________ જૈન ધર્મવિકાસ इन विषयोंमें फंस कर जो मनुष्य उत्तम आध्यात्मिकसुखकी हानी उठाता है वह भी विवेकशून्य ही है । इसी बातकी पुष्टि करते हुए श्रमण भगवान् वीरप्रभुने अपने उत्त राध्ययनसूत्रके सातवें अध्यायमें स्पष्टरुपे फरमाया है कि:...... जहा कागिणीए हेऊ, सहस्सं हारए नरो । अपच्छं अंबगं भोच्चा, राया रज्जंतु हारह ॥ ' अर्थात् जो मनुष्य एक काकिनी (दमड़ी, कौड़ी) के वास्ते सहस्त्रमुद्राओंको खो देवे और जिह्वारसका लोलुपी बनकर जो राजा अपथ्यकारी आम्रफलको आस्वादनद्वारा सम्पूर्ण राज्यलक्ष्मी तथा वैभवको तिलांजलि देकर कालधर्मको प्राप्त करे तो उनके ये सब कृत्य शास्त्रकारोंके शब्दोमें अविवेककी पराकाष्टाके हि सूचक सिद्ध होते है । जैसे कुशाग्रस्थित नीरबिंदुको समुद्रस्थित उदकराशिके साथ तुलना असंभव है। उसी प्रकार सांसारिक अल्पसुखोके साथ आध्यात्मिक चारित्रसुखकी तुलना भी असंभव है। धर्मके यथार्थ तत्त्वसें अनभिज्ञ जन इन पौद्गलिक सुखसाधनोंको ही वास्तविक सुखसाधन मानते है किन्तु यदि इस विषय पर किंचित् भी गंभीरतापूर्वक मनन किया जाय तो स्पष्ट ज्ञान हो जायगा कि वास्तविक सुखका मूल्य इस बाह्यसुखके अन्तर्गत कदापि सन्निहित नहीं है। आध्यात्मिकसुखका संबंध आत्मासें है, और आत्माका संबंध चारित्रके साथ है और चारित्रका संबंध भी ज्ञानदर्शनके साथ है। यह एक शास्त्रीयसिद्धान्त स्वरुप आर्षवाक्यही मान लेना चाहिये कि जब तक जीवका संबंध चारित्रके साथ नहीं होता है तब तक आत्मिकसुखकी आशा लेश मात्र भी नहीं रखनी चाहिये । हां, यह बात भी यहां अवश्यही स्मरण रखने योग्य है कि चारित्र भी ज्ञान एवं दर्शन सब उपयोगपूर्वकही होना चाहिये। इनके बिना चारित्र महत्वहीन एवं निःसारसा हो जाता है जैसे प्राणविहीन कलेवर उपेक्षणीय होता है उसी प्रकार उपयोगहीन चारित्रभी नगण्यही है। उपयोगहीन चारित्रकी उतनी ही महत्ता है, जीतनीकी बिना पुत्र हैं के बरात की। उमास्वाति आचार्यने भी अपने तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके प्रथमाध्ययनके प्रथमसूत्रमें मोक्षमार्गोका प्रतिपादन करते हुए बतलाया है कि “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् मोक्षमार्ग तीन ही है सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चारित्र । चारित्रकी विशेषता ज्ञानदर्शनकेही संबंधसे संबंधित है। ___ उपयोगपूर्वक आत्मविकासी क्रियामें प्रवृत्तिही चारित्र है। चारित्रही जीवका जीवनसर्वस्व है। यहीं से उसके आत्मकल्याणकी प्रथमावस्था एवं आशा प्रारंभ होती

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