Book Title: Jain Dharm Prakash 1965 Pustak 081 Ank 03 04
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीक्षित देवदत्त रचित संमेत शिखर माहात्म्य -ले० श्री अगरचन्द नाइटा "श्री जैन धर्म प्रकाश" के गत १५ अक्टूबर ज्ञानवान्गुणवास्तद्वयीवानतिपुण्यवान् । के अंक में प्रो. हीरायल कापड़िया का "संमेत विराजते सदा भव्यज़नेः संपरिवारवः ।।५५|| शैल संबंधी सामग्री" नामक शोधपूर्ण लेख कालिन्दीकूल बहुधा वित्तव्य बलास्किल । प्रकाशित हुआ है। जो एक सामयिक और निर्माप्य चैत्यभवनं स्थित: सद्धर्मसंमुखः ॥५६॥ महत्त्वपूर्ण प्रयत्न है। उसमें दीक्षित देवदत्त तदा ज्ञातः ह्यद्देरस्थ देवदत्त कबीशिना । रचित संमेतखिखर माहात्म्य के संबंधमें दो कान्यकुब्जकुलोद्भूत दीक्षितेन सुबुद्धिना ॥५७।। प्रश्न उपस्थिन किये है कि यह संस्कृत में दयापरेण हिंसादिरहि तेन हृदापि वै । होगा क्या यह जैन कृति है? वास्तव में यह जैन शासन प्रामाण्यकरणोन्मुख भाविना ।।५८॥ ग्रन्थ संस्कृत में ही है जैसी कि श्री कापड़ियाजीने श्री स्वर्णाचल माहात्म्यं यथावद्रचितं मया। सम्भावना की है। उनका यह प्रश्न कि क्या पढनीयं भव्यजीवैः श्रोतव्यं भक्तिभावतः ॥५९।। यह जैन कृति है? मेरे ख्याल से इस रूप में, पुष्पिकाहोना चाहिये था कि दीक्षित देवदत्त नाम .. इति श्री आचारांगे श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्या और गोत्र के लिहाज से ब्राह्मण होने के नाते नुक्रमेण श्री भट्टारक कविश्वभूषण तत्पट्टाभरण . जैन नहीं होंगे। कृति तो जब संमेत शिखर- श्री ब्रह्महर्षसागरात्मज श्री भट्टारक जिनेन्द्रभूषणोजैन तीर्थ के संबंध में लिखी गई है तो जैन पदेशाच्छ्रीमद्दीक्षित देवदत्त कृते श्री स्वर्णाचल है ही। उमके रचयिता जैन है या नहीं? माहात्म्ये माहात्म्य फल सूचनो नाम षोडशो. यह ही प्रश्न हो सकता है। ऽध्यायः ॥१६॥ देवदत्त दीक्षित की एक और रचना " श्री स्वर्णाचल माहात्म्यम् संपूर्णम् । स्वर्णाचल-महात्म्य" हिन्दी अनुवाद के साथ संवत १८४५ मार्ग सित ४ श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, स्वर्णागिर की ओर से संमेत शिखर माहात्म्य की रचना भी संबत् सन् १९४८ में प्रकाशित हो चुकी है। उसके. १८४५ में ही हुई है। दिगम्बर होलियों का अन्तमें जो प्रशस्ति पुष्पिका है उससे इस मन्दिर, जयपुर में इसकी संवत् १८४८ की संबंधों. महत्त्व की जानकारी मिलती है। लिखी हुई प्रति है। इसके प्रारम्भमें श्री मूल संघ, बलात्कार गण, कुन्दकुन्दान्त्र्य, की जिनेन्द्रभूषण का उल्लेख है। अन्त की प्रशस्ति भट्टारक परंपरा की मामावली देते हुये लिखा में भट्रारक धर्मकीर्ति के,पट्टधर का भी उल्लेख है कि भट्टारक विश्वभूषण के पट्टाभरण श्री है। रचनाकाल सूचन पद्य इस प्रकार हैब्रह्महर्षसागर के आत्मज भट्टारक जिनेन्द्रभूषण वाणवर्द्धि गजे दी श्री विक्रमाद्गत-वत्सरे ।" के उपदेश से दीक्षित देवदत्तने इस स्वर्णाचल भाटे कृष्ण दले तिच्या दशम्या गुरूवासर।। माहात्म्य की रचना की। श्री ब्रह्महर्षसिन्धोश्च तनूजो धर्मविक्रमः । पुण्य मे देवदत्तेन सुविना सुप्त बुद्धिना। जिनेन्द्रभूषणः श्रीमद्भट्टारकपदे स्थितः ॥१४॥ श्री मत्संमेद माहात्म्ये पूर्णि कृत बुधा ॥१०४ For Private And Personal Use Only

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