Book Title: Jain Dharm Prakash 1961 Pustak 077 Ank 03 04
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४६] શ્રી જૈન ધમ પ્રકાશ चवालीस जे दुखणा तिणों कर रहित शुद्ध आहार ग्रहण करे। 'पात्रादिक संजम साधन का संयम रे साधन का पात्र प्रहण करे आदि श दे उपरण महण करे । 'देवचन्द्र आणा अनुलाई देवेषु चन्द्र इव चन्द्रदेव चन्द्रो देवचन्द्रहरि हरादिक जिके देवता तिणां मां चन्द्रमा री परें चन्द्रमा । शुद्धोज्वल ज्ञान प्रकाश पण हुंति, इसौ जिको वीतराग देव, तिरी आणा नाम आज्ञा तिणरा अनुजाई नाम वीतरागनी आक्षा प्रमाणे प्रवतक निज संपत्ति महाराज' निज्ञ आत्मीक संबंधी जिका संपति नाम संपदा, रिव तेने विहीन है मोटोराज जिणां रे नाम निज आत्मीक संबंधी अनंत ज्ञानादि सप मोटो राजपाम्यो है जिणे इसा ते मुनिराज तेहनें नमिमें, नाम नमस्कार करिये अथवा देवचन्द्र कवीश्वर कहे है आंणानु जाई कणा परधरनी आशा, तेहना अनुजाई । ते आज्ञा प्रमाणे प्रवर्तक जे मुनिराज, 'निज संपति महाराज' निज आत्मीक संबंधी संगति नाम संपदा, अनंत ज्ञानादि । तेना महाराश है नाम निज संपदा रूप धन पण छे । इति संटकः इति श्री ज्ञानसारजीकृत सावन वालावबोध संपूर्ण ॥ । I . उपरोक्त पदमें मुनिराज के सुखोंको स्थायी और महत्व की बतलाया है के देवचन्दजी के रचित १२ दोहे प्राप्त हुए है वे नीचे दिये जा रहे है: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (मुनि श्री मोहनलालजी जैन ज्ञान भंडार, सूरत की जिस प्रति में उपरोक्त बालबोध है उस ३५ पत्रों की प्रति के प्रारम्भ में ११ पत्रों में साधुसज्झाय बलावबोध इन्ही ज्ञानसारजी रचित है उसके बाद पत्र ११ से १३ में उपरोक्त पदका बाखावबोध लिखा हुआ है इसके पश्चात् श्रीमद् आनन्दघनजी के १४ पदों का वाटावबोध ज्ञानसारी रचित fear हुआ है । अन्तिम पद " छोरा न क्यूं मार छ रे" इस पदका टब्बा अधूरा लिखा हुआ है अन्तमें लेखककी पुनिका इस प्रकार है। लि. गुलाबविजेयन व आत्मायें ॥ इसी आशय दोहा पर गुणसै न्यारे रहै, निज गुणके आधीन । चक्रवर्त्तितैं अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥ १ ॥ ईद निजइह पर दस्त की जिने परीक्षा कीन चक्रवर्तितें अधिक सुखी, मुनिवर चारित्र लीन ॥ २ ॥ जिन हूँ निज निज ज्ञान मुं म परिख सत्य तीन चक्रवर्ति अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥ ३ ॥ दसविध धर्म घर सदा, सुद्ध ज्ञान परवीन 3 चक्रवर्ति अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥ ४ ॥ समता सागर में सदा भी रहे मीन चक्रपर्ति अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only भा

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