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महिमाप्रभुसूरिरचित रति-रहस्य टीका
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( श्री अगरचन्द नाहटा - बीकानेर )
जैन विद्वानों ने साहित्य निर्माण और संरक्षण में बहुत महत्वपूर्ण भाग लिया है । प्रायः प्रत्येक विषय और भाषा में जैन विद्वानों की रचनाएं मिलती हैं। जैनेतर रचनाओं की भी नकलें करके और उन पर टीकाएं लिखकर उन्होंने अपने ज्ञानभंडारों में सुरक्षित रखी और उनके प्रचार में हाथ बंटाया । मध्यकाल में जब जैन मुनियों में शिथिलाचारने प्रवेश किया तो उन्होंसे कई विषय, जो उनके शास्त्रानुसार पठनपाठन योग्य थे व आचारपालन में बाधक थे उन्हें भी उन्होंने अपना लिया। जैसे वैद्यक अर्थात् चिकित्सा करना जैन मुनियों के आचार के विरुद्ध है पर जैन यतियोंने लोकोपकार के लिए इसे खूब अपनाया ।
जैन धर्म निवृत्तिप्रधान है । उसमें भोगविलास त्याग कर त्याग मार्ग अपनाने के लिए विशेष जोर दिया है। शृंगार रस, जो कि मनुष्य की कामवासना को प्रज्वलित करता है, उसका पोषण जैन साहित्य में नहीं हो सका। फिर भी कुछ रचनाएं शृंगारिक एवं कामशास्त्र संबंधी भी जैन विद्वानों की प्राप्त हुड़ हैं क्योंकि आखिर मानव स्वभाव की कमजोरी पर पूर्ण विजय प्राप्त करना बडा ही कठिन है | २|| हजार वर्षो में लक्षाधिक जैन मुनि हुए है उन सभी की वृत्ति एक समान नहीं हो सकती । यौवनावस्था और आसपास के वातावरण का प्रभाव भी मनुष्य पर पडता
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ही हैं । इसलिए दो चार रचनाएं कामशास्त्र संबंधी भी जैन विद्वानोंने बनाई हों तो इसमें कोई विचार की बात नहीं रहती। प्रो. हीरालाल रसिकलाल कापडिया का 'जैन संस्कृत अने इतिहास' खंड १ प्रकाशित हुआ है उसका ९वां प्रकरण काम - शास्त्र संबंधी जैन रचनाओं का परिचय देने के लिए है। उसमें उन्होंने वायगच्छीय जिनदत्तसूरि के विवेक विलास पांचवे उल्लास के श्लोक १३८ से १९८ में तथा जिनसूरिकृत प्रियंकर नृप कथा के अन्तर्गत कमल श्रेष्ठ कथा में और कई काव्य एवं काव्यशास्त्रों में कामशास्त्रीय विवेचन होने का उल्लेख किया है। स्वतंत्र कृतियों के रूप में कंदर्पचूडामणि का परिचय दिया है। पर उन्होंने इस रचना को जैन होने की जो शंका उठाई है वह वास्तव में सही ही है । उसका रचयिता वीरभद्र जैन नहीं है । अन्य दो रचनाओं के नाम भी उन्होंने दिए हैं । जिनमें काम-प्रदीप के कर्ता गुणाकर के संबंध में विशेष परिचय की आवश्यक्ता है क्योंकि एक श्वेताम्बर गुणाकर अवश्य हुए हैं। कामप्रदीप में बैसा कुछ उल्लेख न हो तो उसे जैन रचना नहीं कहा जा सकता । दूसरी रचना 'कोकप्रकाशसार ' को अज्ञातकर्तृक बताते हुए उसकी प्रति 'भंडारकर इन्स्टीटयूट ' में होने का उल्लेख किया है। पर उसको जैन बतलाने का आधार क्या है ? इसका
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