Book Title: Jain Dharm Kya Hai
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ (१६) पदार्थोंको अपनाया है जिसके कारण वे अपने ही कृत्यों वश इन कर्म रूपी पूल वर्गणाओं से बांधे गये हैं । और अपने यथार्थ स्वरूपको भूल रहे हैं ! अतः अब केवल यही आवश्यक है कि जीव अगाड़ी अन्य पुद्गलं वर्गेणाओंका समावेश न होने दे और जो पूर्व संचित बंध स्वरूप सत्ता में है उनको विध्वंश कर दे। जिस समय यह किया जायगा उसी समय आत्माकी स्वाभाविक संर्वदर्शिता और पूर्णपना प्राप्त हो जायंगे और स्वतंत्रता, अतेन्द्रियता . . • और आनन्दका उपयोग होने लगेगा। इस मतमें किसीसे प्रार्थना अथवा याचना करनेकी आवश्यक्ता तो है नहीं । और ध्यान देने योग्य विशेषता यह है कि कोई भी अन्य द्वार ऐसा नहीं है जो मोक्ष अथवा सुखमेंसे किसी

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29