Book Title: Jain Dharm Aur Sanskriti Author(s): Jyotiprasad Jain Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf View full book textPage 4
________________ १० जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन पार्श्व अपने समय के सर्वमान्य महापुरुष थे। उनका चातुर्याम धर्म प्रसिद्ध है। अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर, बौद्ध साहित्य में जिनका निगंठनातपुत्त (निर्ग्रथज्ञातृपुत्र) के नाम से उल्लेख हुआ है; का जीवन काल ५९९-५२७ ई. पूर्व है। बुद्ध प्रभृति महामानवों के उस महायुग में उत्पन्न महामानव महावीर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । श्रमण पुनरुत्थान आन्दोलन पूर्णतया निष्पन्न हुआ, इसका अधिकांश श्रेय महावीर को है। संघ का पुनर्गटन करके जैनधर्म को जो रूप उन्होंने प्रदान किया वही गत अढ़ाई सहस्र वर्षों के जैन संस्कृति के विकास के इतिहास का मूलाधार है। महावीर के निर्वाणोपरान्त उनकी शिष्य परम्परा के साधु-साध्वियों ने उनके सन्देश को देश के कोने-कोने में पहुँचाया। उनकी आठवीं पीढ़ी में श्रुतकेवलि भद्रबाहु के समय पर्यन्त महावीर का संघ प्रायः अविच्छिन्न बना रहा, किन्तु द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के कारण उक्त आचार्य संघ के एक बड़े भाग सहित दक्षिणापथ को विहार कर गए जहाँ कर्णाटक आदि विभिन्न प्रदेशों में जैनधर्म के अनेक नवीन केन्द्र विकसित हुए। भद्रबाहु के आम्नायशिष्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी गुरु का अनुगमन करके कर्णाटक देशस्थ कटवप्रनामक पर्वत पर अन्तिम जीवन एक जैनमुनि के रूप में व्यतीत किया । दुष्काल की अवधि में जो साधु उत्तरापथ में ही बने रहे, वे स्वभावतः शिथिलाचार से अपनी रक्षा न कर सके । मालवा, गुजरात प्रभृति पश्चिमीय प्रदेश उनके केन्द्र बने । आचार-विचार की दृष्टि से इन दक्षिणी और पश्चिमी शाखाओं के बीच मतभेद की खाई बढ़ती गई, जिसने कालान्तर में (प्रथम शती ई. के अंतिम पाद में) दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय भेद को जन्म दिया । एक तीसरी शाखा का केन्द्र शूरसेन देश की महानगरी मथुरा रही जो विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों एवं जातियों का भी चिरकाल तक महत्त्वपूर्ण संगम-स्थल बनी रही। मथुरा के जैनसंघ ने उपर्युक्त दोनों शाखाओं के बीच समन्वय करने के स्तुत्य प्रयत्न किये, उन्होंने उस महान् सरस्वती आंदोलन का नेतृत्व एवं प्रचार किया जिसके फलस्वरूप गुरु-शिष्य परम्परा में मौखिक द्वार से संरक्षित एवं प्रवाहित द्वादशांगश्रुत रूप जिनागम के महत्त्वपूर्ण ७. देखिए-ज्यो० प्र० जैन, 'रिवाइवल आफ श्रमणधर्म इन लेटर वैदिक एज' ('जैन जर्नल', २९७१-७२); 'भारतीय इतिहास : एक दृष्टि', पृ० ४५-५० । ८. वही, पृ० ५०, ५४-५९ । ९. वही, पृ० ८८-८९ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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