Book Title: Jain Dharm Aur Sanskriti
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 2
________________ ८ जैनदिद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन के कारण वे 'अर्हं या 'अरहंत', दुःखपूर्ण संसार सागर को पार करने के हेतु कल्याणप्रद धर्म- तीर्थ का प्रवर्तन करने के कारण 'तीर्थंकर', समस्त अन्तर एवं बाह्य परिग्रह से मुक्त होने के कारण 'निर्ग्रन्थ' और स्वपुरुषार्थ द्वारा श्रमपूर्वक समत्व की साधना एवं आत्मशोधन करने के कारण 'श्रमण' कहलाते हैं । उन्हीं ऋषभादि-महावीर पर्यन्त चौबीस निर्ग्रथ श्रमण अर्हतु केवलि-जिन तीर्थंकरों द्वारा स्वयं जानी गई, अनुभव की गई, आचरण की गई और विना किसी भेदभाव के 'सर्वसत्वानां हिताय, सर्वसत्वानां सुखाय' उपदेशित एवं प्रचारित धर्मव्यवस्था का ही नाम जैनधर्म है उनके अनुयायी जैन या जैनी, श्रमणोपासक अथवा श्रावक भी कहलाते हैं । इन अहिंसा एवं निवृत्ति प्रधान परम्परा द्वारा पल्लवित पोषित संस्कृति ही जैन संस्कृति है । प्राचीनता इस परम्परा के मूलस्रोत प्राग्ऐतिहासिक पाषाण एवं धातु-पाषाण युगीन आदिम मानव सभ्यताओं की जीववाद ( एनिमिज्म) प्रभृति मान्यताओं में खोजे गए हैं । सिन्धु उपत्यका में जिस धातु-लौह युगीन प्रागऐतिहासिक नागरिक सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं उसके अध्ययन से एक सम्भावित निष्कर्ष यह निकाला गया है कि उस काल और क्षेत्र में वृषभ-लांछन दिगम्बर योगिराज ऋषभ की पूजा-उपासना प्रचलित थी । उक्त सिन्धु सभ्यता को प्राग्वैदिक एवं अनार्य ही नहीं अपितु प्रागार्थ भी मान्य किया जाता है, और इसी कारण सुविधा के लिए उसे बहुधा द्राविड़ीय संस्कृति संज्ञा दी जाती है । वैदिक परम्परा के आद्यग्रन्थ स्वयं ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ऋषभदेव के आदर पूर्वक प्रत्यक्ष तथा परोक्ष उल्लेख हुए हैं । स्पष्ट नामोल्लेखों के अतिरिक्त, वैदिक संहिताओं के अर्हतु केशी, व्रात्य, वातरशना, मुनि आदि शब्द ऋषभ के लिए ही प्रयुक्त हुए प्रतीत होते हैं, ऋतु, सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि शब्द उनकी विशिष्ट मान्यताओं या प्रस्थापनाओं के सूचक हैं, और श्रमण, मुनि, यति आदि शब्द उनके अनुसर्ताओं के । वैदिक उल्लेखों एवं संकेतों का विशदीकरण तथा स्पष्टीकरण पुराण ग्रन्थों में किया गया माना जाता है, और भागवत्, विष्णु, मार्कण्डेय, ब्रह्माण्ड आदि प्रमुख पुराणों में परमेश्वर के अष्टम अवतार के रूप में जिन नाभेय ऋषभदेव का वर्णन हुआ है वह ऋग्वेदादि में उल्लिखित ऋषभ ही हैं, इस विषय में प्रायः कोई सन्देह नहीं किया जाता । इन वर्णनों में और जैन पौराणिक अनुश्रुतियों में उपलब्ध प्रथम तीर्थंकर आदिदेव नाभिसुत ऋषभ के वर्णनों में ऐसा अद्भुत सादृश्य है जो इस तथ्य को असंदिग्ध बना देता है कि दोनों ही परम्पराओं में अभिप्रेत पुराणपुरुष परिसंवाद -४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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